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निवेदन
श्री अगरचंदजी नाहटा राजस्थानके प्रतिभा सम्पन्न साहित्यकार, लेखक, विचारक और इतिहासकार ही नहीं, अपितु समस्त भारतके गौरव हैं। आप बहुमुखी प्रतिभाके धनी हैं। अपने व्यवसायमें लगे रहते हुए भी आपका साहित्य-प्रेम बराबर बना हुआ है । अद्भुत स्मरण-शक्तिके साथ-साथ विद्यानुराग विरले मनुष्योंमें ही होता है। जैसलमेरके शिलालेखोंका जो संग्रह नाहटाजीने किया, वह आपके पुरातत्त्व-प्रेम का द्योतक है। कठिन परिस्थितियों में जैसलमेरके रेतीले टीलों, मंदिरों आदिमें जाकर आपने जो संग्रह किया है, वह अद्भुत है। राजस्थानका ही नहीं अपितु भारतके किसी भी भागका ऐसा जैन-लेख-संग्रह अभी तक नहीं छपा है ।
इस प्रकार जिस किसी भी कार्यमें श्री नाहटाजी हाथ डालते हैं, वह सांगोपांग पूर्ण होता है। प्राचीन साहित्यके उद्धारके लिए जो कार्य आपने किया, उसकी मिसाल बहुत ही कम देखनेको मिलती है ।
विद्यादानके सम्बन्धमें आप बहुत ही उदार हैं। हिन्दी और इतिहासमें शोध करनेवाले विद्वानोंको मुक्तहस्तसे जिस प्रकार नाहटाजीने सहयोग दिया है, वैसी मिसाल बहुत कम है। प्रायः विद्वानोंको शोध-कार्यमें सामग्रीके लिए कई जगह भटकना पड़ता है किन्तु जब वे श्री नाहटाजीके यहाँ आ जाते हैं तो उनको यथेष्ट सामग्री बिना किसी रोक-टोकके एक साथ ही मिल जाती है। इस प्रकार श्री नाहटाजीके अद्भुत व्यक्तित्वके लिए जितना भी कहा जाये, कम होगा।
श्री नाहटाजीको अभिनन्दन-ग्रन्थ भेंट करनेकी योजना प्रारंभमें श्री हजारीमलजी बाँठियाने बनायी थी। श्री नाहटाजी स्वयं नहीं चाहते थे कि उनका अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकाशित किया जाये, किन्तु जब काफी दबाव डाला गया तब इन्होंने इसके लिए स्वीकृति दी।
नाहटाजीकी सेवाओंको देखते हुए अभिनन्दन-ग्रन्थ कई वर्ष पूर्व ही प्रकाशित होना चाहिये था, किन्तु राजस्थानमें अन्य साहित्यसेवी मुनि जिनविजयजी, पंडित चैनसुखदासजी आदिके ग्रंथोंमें भी इसी प्रकारसे अप्रत्याशित देर हुई है।
मूलरूपसे डॉ. हरीशने इस कार्यको प्रारंभ किया था किन्तु कई कारणोंसे वे इसे पूर्ण नहीं कर सके। कालान्तरमें डॉ. मनोहरजीकी प्रेरणासे वह कार्य मैंने लिया । स्व० डॉ० ए० एन० उपाध्ये, श्री रत्नचंद्रजी अग्रवाल, डॉ० सांडेसराजी, डॉ० बी० एन० शर्मा और श्री नरोत्तमदासजी स्वामीने सम्पादक-मंडलमें रहनेकी स्वीकृति देकर अपना सहयोग प्रदान किया।
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