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योगशास्त्र. रखा, पिंडरूप थयला हर्षसरखा, रूपवाला उदासीनपणा सरखा, तप, शांतता, सद्ज्ञान विगेरेना एकग थवा सरखा, साक्षात् विनय सरखा, साधारण सिकि सरखा, सघति शास्त्रसंपत्ति प्रत्ये व्यापी रहेला हृदयसरखा, तथा नमः, खस्ति, स्वधा, खादा अने वषट्कार आदि मंत्रोना अर्थरूप, तेमज केवल विशुद्ध धर्मनिर्माणना अतिशय सरखा तथा स. मस्त तपना एकता थयेला समग्र फलरूप, सघला गुणसमूहना अविनाशी परमजागरूप, परमनिः श्रेयस (कैवल्य)नी लक्ष्मीना निर्विघ्न श्राश्रय (अधिष्ठान ) रूप, महिमाना एक धामरूप, मोदनी मूर्तिरूप एवा सर्व विद्यार्जनां कुलमंदिर होय नहि शुं एवा, तथा सर्व मनोरथोना फलरूप आर्यवर्यनां चरित्रोना निर्मल आदर्श (दर्पण) रूप तथा जेमणे जगत्ने दर्शन आपेलां एवा मूर्तिमान् प्रशमरूप तथा कुःखोनी शांतिनुं धार होय नहि शुं एवा तेमज उज्वल ब्रह्मचर्यरूप, पुण्यवडे प्राप्त थयेला जीवलोकना एक जीवितरूप मृत्युरूप वाघना मुखमांथी आ सघला जगत्ने खेची लेवा माटे अर्थात् बचाववा माटे जाणे कृपाबु निर्माणे हाथ पसारेलो होय नहि एवा, तथा प्राणीजना मृत्युना नाशमाटे (अथवा जन्म मरणना नाशरूप मोक्ष माटे) वली ज्ञान रूरूपी मंदराचलथी तुब्ध थयेला संतोषरूपी समुजमाथी निकलेला अमृत सरखा, वली जगतने अजयदान देवाथी, शांत करनारा, एवा तमोने, हे प्रजो ? हुं शरणे आवेलो , माटे श्राप मारापर कृपा करो ? पड़ी त्यां झपन देव प्रजुनी एकाग्रचित्तथी तेणें घणा कालसुधि सेवा करी, पडी प्रनु पण ते पर्वतपर, दीक्षा लीधा पड़ी एक लाख पूर्व गया बाद दश हजार साधुर्व साथे मोके पधार्या, ते वखते आदिक देवोए प्रजुनो निर्वाणमहोत्सव कस्यो, तथा (प्रजुना निर्वाणथी) दिलगिर थता जरतने झें शांत कस्यो. पनी चरतें त्यां अष्टापद पर बीजा अष्टापद सरखो एक रत्नमय प्रासाद बंधाव्यो, तथा तेमां प्रजुना जेटलाज प्रमाणवाली तेमनी रत्नमय मूर्ति स्थापन करी. वली तेणें प्रज्जु शिवायना हवें थनारा त्रेवीश तीर्थंकरोनी पण, तेमनां परिमाण जेवडी प्रतिमा बनावी; तथा नवाणु महात्मा नानां पण रत्नमय अनुपम रूपो तेणे बनाव्यां; वली पागे ते राजा पोतानी नगरीमां आवी प्रजाना रक्षण