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तृतीयप्रकाश.
२६३ माटे जे सुपात्रो होय तेने पण अन्नादिकनुं दान आप; पण वर्णादिकनुं नहीं; हवे ते सुपात्रो कोण? ते कहे . ज्ञान दर्शन, अने चा-. रित्ररूपी त्रण रत्नोवाला, तथा पांच सुमति अने त्रण गुप्तिना धरनारा पंच महाव्रतोने पण धरनारा, तथा परिसह अने उपसर्गोरूपी मोटी शत्रुसेनाने जीतवाने सुनटो सरखा शरीरमांपण ममता विनाना धर्मोपकरण शिवायना परिग्रह विनाना, फक्त शरीरने धर्मक्रियामाटे निजाववाने बेंतालीश दोषरहित आहार लेनारा, नवगुप्ति सहित ब्रह्मचर्य पालनारा, तथा परनी तणखलासरखी वस्तुमां पण स्पृहाविनाना, तथा मान अपमानमां, लाल अलाजमां, सुख सुःखमां, प्रशंसा अने निंदामां, तथा हर्ष अने शोकमां पण तुल्यवृत्तिवाला, तथा करवं, करावयूँ, अने अनुमोद, नांगाउँथी आरंजविनानी, तथा एक मोदनाज तानवाला, एवा मुनि उत्तम पात्रतुव्य बे. वली सम्यग्दृष्टि, तथा देशविरतिवाला, अने यतिधर्मना श्वक गृहस्थो मध्यम पात्रतुल्य बे. अने सम्यक्त्वमात्रमा संतुष्ट श्रयेला, व्रत तथा शीलमा स्पृहाविनाना तथा तीर्थप्रजावनामां उद्यमवंत थयेला, जघन्य पात्रतुल्य डे. हवे कुशास्त्रो सांजलवाथी वैराग्यवाला, परिग्रह विनाना, ब्रह्मचर्य पालवामां रक्त थयेला, चोरी मृषावाद अने हिंसाथी दूर रहेनारा जयंकर व्रत करनारा मौन धारण करनारा, कंदमूल अने फल खानारा, तथा निदा मागी नोजन करनारा, रंगेलां (नगवां) कपडां पेहेरनारा, अथवा नग्न रहेनारा, शिखा अने जटा राखनारा, मुंडा, एकदंडी, अथवा जंगलमा रहेनारा, ग्रीष्म ऋतुमां पंचाग्निनी आतापना लेनारा, अंगे जस्म चोलनारा, तुंबडी अने हाडकांनां आजूषणो पहेरनारा, पोतानी बुद्धिथी धर्मवंत, पण मिथ्यादर्शनथी दूषित थयेला, जिन धर्मनो द्वेष करनारा, एवा मूढ कुतीथिने कुपात्रो जाणवा. जीवहिंसा करनारा जूतुं बोलनारा, पर धननी चोरी करनारा, अत्यंत कामी, परिग्रह अने आरंजमांज रक्त थएला, हमेशां संतोषविनाना, मांसाहारी, मद्यपानमा रक्त, क्रोधी क्लेश करनारा, कुशास्त्रो जणीने पोताने पंडित माननारा, तथा तत्वथी नास्ति कतुल्य, एवा माणसो अपात्र डे. एवी रीतें, कुपात्र अने अपात्रने तजीने मोदने श्वनारा माणसो पात्रदान करे . ते पात्रदान सफ