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________________ યુગપ્રધાન જિનચંદ્રસૂરિ ૩૨૫ सूवा सारू मधुरसि लवइ, वचनदंड पंजर दुख सहइ। . मगर सहस योजन विस्तार, तंदुल लघुतमि मन व्यापार ॥ १३ ॥ इक इक दंडि महादुख पार, तिहुँ सहत तिणि कवण आधार । माया वागुल क्रोध भुजंगु, मानिहि वेसर होइ मतंगु ॥ १४ ॥ लोभिइ उंदरडो मरि होइ, कर्म आगल नवि छूटइ कोइ। नयन रूपि रंगि रमइ पतंगु, नाद वेधि वेधियउ कुरंगु ॥ १५ ॥ मीन रसनि परिमल भमरलउ, फरस रसि गज गयवर गलिउ। इक इक लगइ दुख सहइ, जिस तनि पंचइ ते किम सहइ ॥१६॥ (कलश-) इय सुणिय मुणिय विचार निरमल, आठमद जिउ परीहरइ। तजी राग दोस कसाय इंद्रि, पंच विषय नं चित धरइ ॥ धन धन्न खरतर गच्छ सुरतरु, भणइ 'जिणचंद सूरि'। जे पढइ तेहनइ 'आदि जिणवर', मनह वंछित पूरि ॥ १७ ॥ - (पत्र १ तत्कालीन लिखित) १२ विक्रमपुर मंडन आदिजिन स्तवन । (राग-धारणि) साचउ इक अरिहंत अकल सरूपी, जिणवर जाणीयइ रे। __ हरि हर ब्रह्मा देव ते सुहणइ, मनहि न आणीयइ रे ॥ सामी समरथ आज मई, नयणउ निरखीयइ रे।। मन माहरउरे रूडा, जिणगुण गाइवा हरखीयउ रे॥१॥ आंकणी । रमणि रंग विलास यौवन, धन छइ सहु (य) कारिमउ रे। __ भवभयभंजण धीरश्रीरिसहेसर,मुखसुरतरु समउरे ॥२॥ मन०. तुम्ह दरिसण जगनाह सफल, जमारो जाण्यो मइ माहरऊ रे। __ कामित फल दातार हिव हुँ, नाम न छोडूंताहरऊ रे ॥३॥ मन०। यो समकित सामि ! वलि वलि, पय पणमी वीनवउं सहि रे। गिरुआ तणउ रे सभाव एहज, प्रारथीया पहिडइ नहीं (रे) ॥४॥ 'विक्रमनयर' श्रृंगार श्रीआदिसर, निजमन ध्यायइ रे। श्रीजिनचंदसूर्ति' एम पभणइ, वंछित ( पायडरे ॥५॥ मन'
SR No.011554
Book TitleYuga Pradhan Jinachandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDurlabhkumar Gandhi
PublisherMahavirswami Jain Derasar Paydhuni
Publication Year
Total Pages444
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size14 MB
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