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परिशिष्ट (७) ११-अष्ट मद चौपइ प्रथम ऋषभ नमुं जिनराज, जसु सेवइ सवि सीझइ काज । अष्टमद चउपइ सुचंग, रचि (सुं) सि भाव भगति मनरंगि ॥१॥ परहित परउपकार मुर्णिद, पूछइ गोयम वीर जिणिंद । कहि प्रभु! कर्म विपाक विचार, किम जीव रुलइ? मदइ संसार॥२॥ जाति न अम्ह सम उत्तम कोइ, इसइ गरवि मरइ सो कमि होइ। पूरव भव जातिमद कियउ, मरी चंडाल 'हरिकेसीवली' हुअउ ॥३॥ जे कुलमद करइ वोलइ आल, ते परभवि हुइ ससउ सियाल । कुलमद 'मरीचि' लगाइ खोडि, भमिउ सागर कोडाकोडी ॥४॥ हम सम रूपि न इसि मदि नडिउ,
निरखत सयल अचल (चलत) आखडीउ। . . विणसत रूप न लागी वार, हुओसु ऊंट योनि अवतार ॥ ५॥ षटखंड पृथिवी ऋद्धि अपार, चउद रतन नवनिधि भंडार ।। रूप गर्व कियउ 'सनत्कुमार', विणठउ तन धिगधिग संसार ॥६॥ कहइ न बलवंत हम सम कोई, मरि पतंग सो निश्चय होई। गति यौवन वलि थिर न रहेइ, तु'बाहुबलि' दीक्षा लहेइ ॥ ७॥ मति बुद्धिनउ फल परतखि जोइ, मरि मूरख मृग छालउ होइ । पढत पाठ गरविउ अयाण, हुं जगि पंडित अवर न जाण ॥ ८॥ ज्ञानमदिइ बलदिउ सु होइ, रथ जूतइ दुख सहसिइ सोइ । धण कण कंचण ऋद्धि मद कीउ,.
धिग धनु जिसु लगइ कूकर हुउ ॥९॥ राति(दि)हि घरि घरि भमतउ रहइ, हडकत रांक न खुरचनि लहइ । नवइ नंदि मम्मणि लोभीयउ, धन न धर्म दुख आगल थयउ ॥ १० ॥ भोजन करि वेयावञ्च करइ, निंदइ तसु तपु गरव मनि धरइ । 'कूरगडू' नी परि दुख सहइ, तृपति आहार करत नवि लहइ ॥११॥ मुझ न गमइ इहु दोभागियउ, हुं जगि वल्लभ सोभागियउ । .. इसा वचन गरब मनिहागई साप काग होइ अवतरइ ॥ १२॥