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कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ
पं. जुगल किशोरजी मुख्तार ने मूल ग्रन्थको उसके हिन्दी अनुवाद तथा परिचय के साथ प्रस्तुत करके सर्वसाधारण के लिए इसे सुगम बना दिया है ।
३. स्वयम्भूस्तोत्र
यह आचार्यकी महत्त्वपूर्ण तीसरी रचना है । इसमें आदि जिन श्री ऋषभदेवसे लेकर अन्तिम तीर्थंकर महावीर पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकरोंका बड़ा ही हृदयग्राही और तत्त्वज्ञानपूर्ण स्तवन किया है । इसमें कुल पद्य-संख्या १४३ है। एक-एक प इतना गम्भीर, जटिल और प्रौढ़ है कि एक-एक स्वतंत्र ग्रन्थका वह विषय बन सकता है । इस पर आचार्य प्रभाचन्द्रकी एक संस्कृत - टीका उपलब्ध है जो मध्यम परिमाण तथा साधारण है ।
४. रत्नकरण्डक श्रावकाचार
यह श्रावकाचार पर लिखा गया आचार्यका चौथा ग्रन्थ है । उपलब्ध श्रावकाचा मे यह सबसे प्राचीन प्रधान उत्तम और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है । वादिराज सूरिने (पार्श्वनाथ चरितश्लोक १७में) इसे 'अक्षय्यसुखावह' और प्रभाचन्दने 'अखिलसागर मार्गको प्रकाशित करनेवाला सूर्य' लिखा है । इस पर भी प्रभाचन्द्रकी संस्कृत टीका है, जो ग्रन्थके हार्दको सामान्य रूप से स्पष्ट करती है । हिन्दी में भी इस पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई हैं ।
५. जिनस्तुतिशतक
यह समन्तभद्रकी उपलब्ध पांचवीं रचना है। इसे 'स्तुतिविद्या' और 'जिनशतकालंकार' भी कहते हैं । यह भक्तिपूर्ण उच्चकोटिकी रचना है । यह बहुत दुरूह और दुर्गम है । बिना संस्कृत - टीकाकी सहायता के इसके हार्दको समझ सकना सम्भव नहीं है । इसके पयोंकी संख्या ११६ है और उन पर एक संस्कृत टीका उपलब्ध है । संस्कृत टीका श्री नरसिंह भट्ट की है । ग्रन्थ में afra और आध्यात्मिक तत्त्व खूब भरा हुआ है ।
पांचों कृतियाँ जैन वाङमयकी अद्वितीय निधि हैं। इनमें आदिकी नीन रचनाएँ जैननयाय चौथी श्रावकाचार और पांचवीं भक्ति विषय पर हैं ।
भट्ट अकलङ्कदेवका अमर वाङ्मय
श्री पं. दरबारीलालजी कोठिया, न्यायार्चार्य, एम. ए., प्राध्यापक हिन्दू वि. वि., वाराणसी कलङ्कदेवका व्यक्तित्व और कृतित्व
तार्किक चूडामणि भट्ट अकलङ्कदेव ( वि. की ७ वीं शती) दि. जैन परम्पराके प्रमुख एवं महान् आचार्य हैं । जैन दर्शन में इनका वही महनीय स्थान है जो न्यायदर्शन में न्यायवार्तिककार saptan, मीमांसादर्शनमें मीमांसा श्लोकवार्तिककार कुमारिल भट्ट और बौद्धदर्शन में प्रमाणबार्तिकादिकर धर्मकीर्तिका है। जैन परम्परा में ये 'जैन न्यायके प्रस्थापक' के रूपमें स्मृत