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________________ Si AAAY RANI (ख) अष्टसहनी यह आप्तमीमांसाकी द्वितीय टीका है। इसमें अष्टशती सहित देवागमकी कारिकाओं और उनके प्रत्येक पद-वाक्यों का सुबोध; प्रौढ़ और विस्तृत व्याख्यान किया गया है । विद्यानन्दने अपनी सूक्ष्म प्रतिभासे व्याख्यानके अलावा उन-उन सन्दर्भो में कितना ही नया विचार और विस्तृत चर्चाऐं भी इसमें प्रस्तुत की हैं। टीकाके महत्त्वकी घोषणा करते हुए विद्यानन्दने लिखा है कि 'हजार शास्त्रोंको सुननेको अपेक्षा केवल इस अष्टसहस्रीको सुन लीजिए, उसीसे ग्वसमय और परसमयका बोध हो जायगा । " विद्यानन्दका यह लिखना अतिशयोक्ति या गर्वोक्ति नहीं है, क्योंकि वास्तव में उनके इस कथनमें अष्टसहस्री स्वयं साक्षी है । देवागमकी तरह इसमें भी दश परिच्छेद है और प्रत्येक परिच्छेदका आरम्भ तथा समाप्ति एक-एक सुन्दर पद्य द्वारा की गई है । इस पर भी दो टीकाएँ पाई जाती हैं। एक लघु समन्तभद्र (वि. की १३ वीं शती)की अष्टसहस्री विषमपदतात्यर्य, टीका और दूसरी श्री यशोविजय (वि. की १७ वीं शती )की अष्टसहस्री तात्पर्य विवरण । (ग) देवागमत्ति यह आममीमांसा पर लिखी गई तीसरी टोका है । इसके रचयिता आचार्य बसुनन्दि हैं । वसुनन्दिने आममीमामाकी कारिकाओं और उनके पद-वाक्योंका इसमें सामान्य अर्थ तथा भावार्थ दिया है । विद्यानन्दकी तरह विस्तृत व्याख्यान एवं नयी चर्चाएँ इसमें नहीं दी हैं । फिर भी समन्तभद्रक हादेको व्यक्त करनेका प्रयत्न किया गया है । (ब) देवागमवचनिका पण्डित जयचन्दजीने पूर्ववर्ती संस्कृत-टीकाओंके आधारसे इसमें आप्तमीमांसाके अर्थ तथा भावार्थको ढूंढारी हिन्दीमें प्रस्तुत किया है । जो संस्कृत कम जानते हैं और जैनन्यायमें विशेष रुचि रखते हैं उनके लिए यह हिन्दी वचनिका उपयोगी है । २, युक्त्यनुशासन आचार्य समन्तभद्रकी दूसरी महत्त्वपूर्ण रचना युक्त्यनुशासन है ! आप्तमीमांसामें वीरजिनकी मीमांसा करने के उपरान्त प्रस्तुत कृतिमें समन्तभद्रने उनकी स्तुति की है । जब वीर-जिन आचार्यकी परीक्षा-कसौटी पर खरे उतरे और उनमें उन्होंने 'महानता' (आमता) के गुण पाये तो उनके स्तवनस्वरूप उन्होंने इस युक्त्यनुशासनकी रचना की है । ६४ कारिकाओं द्वारा आचार्यने म्याद्वाददर्शन क्या है ? इसे युक्ति तथा प्रमाणों द्वारा सिद्ध करके उस उपदेशक वीर-जिनमें अपनी श्रद्धा एवं भक्तिको स्थिर किया है । स्तोत्र बड़ा सुन्दर, प्रौद और गम्भीर है । इस पर आ. विद्यानन्दकी मध्यम परिमाणवाली टीका है, इसका नाम 'युक्त्यनुशासनालंकार' हे ।
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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