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________________ कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथ दिल अपने ढंगका अनूठा है। उसके कुछ लोक वर्तमान विवादको सुलझाने में सहायक हो सकते हैं। दूसरा ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रका पद्यानुवाद है। उसके भी अन्तमें जो उपसंहार श्लोक हैं वे बड़े महत्त्व के हैं। शेष तीन कुन्दकुन्दके प्रसिद्ध ग्रन्थोंकी टीकाएं हैं। समयसारकी आत्मख्याति टीकामें आगत पद्य समयसार कलशके नामसे उनका छठा ग्रन्थ है। उसका महत्व कुन्दकुन्द के समयसारसे किञ्चित् भी न्यून नहीं है। यथार्थमें वह कुन्दकुन्दके समयसारके कलशरूप ही है। यह कतिपय दिगम्बर जैनाचार्यों का संक्षिप्त परिचय है। शिलालेखोंमें कुन्दकुन्दस्तवन श्री डा. ज्योतिप्रसादजी जैन, एम. ए., एल. एल बी , पी. एच. डी., लग्वनऊ धर्मतीर्थक प्रवर्तन द्वारा आत्माकल्याणके साथ रोकका कल्याण करनेवाले तीर्थङ्कर महाप्रभुओंमें अन्तिम श्रमणोत्तम भगवान महावीर थे । उनकी दिव्यध्वनिको द्वादशांग श्रुतके रूपमें गूंथनेवाले उनके प्रधान शिष्य महाप्राज्ञ गणेश इन्द्रभूति गौतम थे । और द्वादशांग श्रुतमें प्रतिपादित धर्मतत्त्वका सर्वाधिक उद्योत एवं प्रसार करनेवाले, गुरुओंमें सर्वप्रमुख थे निग्रन्थाचार्य महर्षि कुन्दकुन्द । गत साधिक दो सहस्र वर्पसे प्रत्येक शुभ कार्यका प्रारंभ करते समय मंगलरूपमें इस जीवोद्धारक त्रिमूर्तिका मरण होता आ रहा है । भगवान कुन्दकुन्दके जन्मसे धन्य होने का सौभाग्य दक्षिण भारत के संभवतया कोण्डकुन्दपुर नामक स्थानको प्राम हुआ था, इसीसे दक्षिण भारतके कर्णाटक आदि प्रदेशोंमें उपलब्ध अनेकों शिलालेखांमें इन आचार्यका नाम 'कोण्डकुन्द ' रूपमें पाया जाता है। इसी प्रकार इनके नामसे कालान्तर में प्रसिद्ध होनेवाले अन्यय या आम्नायका नाम भी बहुधा 'कोण्डकुन्दान्वय' रूपमें प्राप्त होता है । कोण्डकुन्द ' का ही श्रुतिमधुर संस्कृत रूप 'कुन्दकुन्द ' है। स्वयं उनके द्वारा रचित 'बारलअणुवेक्खा में भी उनका कुन्दकुन्द' नाम ही मिलता है और उस नामसे वे उत्तरवर्ती साहित्यम तथा लोकमें प्रसिद्ध हुए। यद्यपि कतिपय शिलालेखादिमें उनके दूसरे नाम पद्मनन्दि, वक्रग्रीव, गृद्धपिच्छ, पलाचार्य, महामात आदि भी पाये जाते हैं । जिस समय दूतवेगसे हासको प्राप्त होते जानेवाले अंग- पूर्वज्ञान के सर्वथा लुप्त हो जानेका भय संघमें व्यापने लगा था उस समय श्रुतागमके पुस्तकारूढ़ करने के लिये जो सरस्वती आन्दोलन चलाया गया था, कुन्दकुन्दाचार्य उसके प्रमुख नेता थे और उन्होंने म्वयं चौरासी प्राभृत ग्रन्थोंकी रचना करके आगमसारका उद्धार एवं संरक्षण किया तथा अपने उदाहरण द्वारा अन्य समर्थ आचार्यों को आगमोंके पुस्तकारूढ़ करने वा आगामोंका उद्धार करने अथवा आगमानुसारी स्वतन्त्र प्रन्थ रचनाके लिए प्रेरणा एवं प्रोत्साहन प्रदान किया। Romanmment SANORAM
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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