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________________ कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ इनसे भी धर्मकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । एक जीव द्रव्य हूँ, ज्ञान-दर्शन आदि अनन्त गुणोंका मैं विण्ड है, संसार और मुक्त ये क्रमसे होनेवाली मेरी ही अवस्थाएं हैं इत्यादि रूपसे तत्त्वका चिन्तवन करते करते धर्मकी उत्पत्ति हो जायगी यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा चिन्तन विकल्पके विना वन नहीं सकता और विकल्पमात्र संसारका कारण है । नियमसार में बतलाया है कि बाहरी और भीतरी जितना भी जल्प है वह सब संसारका ही कारण है । सारांश यह है जितने भी विकल्प हैं वे सब बन्धके हेतु होनेसे धर्म प्राप्ति के हेतु नहीं सकते । इसलिए धर्म प्रातिका मुख्य हेतु क्या है यह प्रश्न पुनः उपस्थित होता हैं । जिसे निराकुलतालक्षण सुख प्राप्त करना है वह उसके साधनभूत धर्मको तो प्राप्त करना ही चाहता है पर वह क्या करे जिससे उसे उसको प्राप्ति हो । यह एक प्रश्न है जिसके सम्यक् समाधान पर पूरा मोक्षमार्ग अवलम्बित है. अतएव आगे इसीका विचार करते हैं ज्ञान है. आचार्य कुन्दकुन्द समयसार में कहते हैं कि संसारी जीवने भोग और कामसम्वधी कथाको अनन्त बार सुना, अनन्त बार उसका परिचय प्राप्त किया और अनन्तवार उसे अनुभवा परन्तु परसे भिन्न अपने ज्ञायक स्वरूप एकत्वको उसने एक बार भी प्राप्त नहीं किया । वह एकत्व क्या है ? इसकी मीमांसा करते हुए वे कहते हैं कि प्रमाद और अप्रमादरूप जितनी भी अवस्थाएं हैं उनसे तो वह जुदा है ही । दर्शन है, चारित्र है ऐसे भेद विकल्पको भी उसमें स्थान नहीं है । इतना ही नहीं, उसे ज्ञायक कहने पर ज्ञेयके कारण वह ज्ञायक है ऐसी जो ध्वनिका आभास होता है सो उसे भी वह स्पर्शता नहीं, ऐसे निर्विवल्प ज्ञायक स्वरूप आत्माको जिस समय यह जीव अपनी बुद्धि में स्वीकार कर क्रमशः मैं ज्ञायक हूँ इस विकल्पसे भी निवृत्त हो तत्स्वरूप स्वयं परिणम जाता हैउरूप अपनेको अनुभवता है तब इसे रत्नत्रयस्वरूप धर्मकी प्राप्ति होती है । सम्यग्दर्शनादिरूप धर्मप्राप्तिका एकमात्र यही मार्ग है । रत्नत्रयकी पूर्णताका नाम मोक्ष है, इसलिए मोक्षप्राप्तिका भी यही मार्ग | इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य पद्मनन्दि पद्मनन्दिपंचविंशतिका के एकत्वसप्तति अधिकार में कहते हैं अजमेकं परं शान्तं सर्वोपाधिविवर्जितम् । आत्मानमात्मना ज्ञात्वा तिष्ठेदात्मनि यः स्थिरः ॥ १५ ॥ स एवामृतमार्गस्थः सः एवामृतमश्नुते । स एवान जगन्नाथः स एव प्रभुरीश्वरः ॥ १४ ॥ जो जन्म-मरणसे रहित, एक, उत्कृष्ट, शान्त और सब प्रकारकी उपाधिसे रहित आत्माको आत्माद्वारा जानकर आत्मामें ही स्थिर रहता है-आत्माको अनुभवता है वही अमृतमार्ग-मोक्षमार्ग में स्थित है, वही अमृत मोक्षको प्राप्त करता है । तथा वही अर्हन्त, जगन्नाथ, प्रभु और ईश्वर है || १५-१९॥
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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