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________________ संसार और उसके कारणोंका अभाव होकर इस जीवके संसारका अभाव होता है इसका निर्देश करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसार गाथा १९० - १९२ की टीका में कहते हैंयदा तु आत्म-कर्मणोर्भेदविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगलक्षणानां अध्यवसानानां आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः । तदभावे रागद्वेषमोहरूपास्रवभावस्य भवत्यभावः । तदभावे भवति कर्माभावः । तदभावेऽपि भवति नोकर्माभावः । तदभावेऽपि भवति संसाराभावः । परन्तु जब यह आत्मा आत्मा और कर्मके भेदज्ञान द्वारा शुद्ध चैतन्य चमत्कारमात्र आत्माको प्राप्त करता है - अनुभवता है तब आस्रवभावोंके हेतुभूत मिथ्यात्व, अज्ञान, अविर और योगरूप अध्यवसानोंका अभाव होता है । उनका अभाव होने पर राग, द्वेप मोहरूप आस्रवभावका अभाव होता है। आस्रवभावका अभाव होने पर कर्मका अभाव होता है । कर्मका अभाव होने पर नोकर्मका अभाव होता है। तथा नोकमका अभाव होने पर संसारका अभाव होता है । यह संसारके अभाव करनेकी प्रक्रिया है । इससे विदित होता है कि सम्यग्दर्शनादिरूप धर्मकी प्राप्तिका एकमात्र उपाय शुद्ध चैतन्य चमत्कारमात्र आत्माका आश्रय करना ही है, अन्य कुछ नहीं । यह आत्मा सम्यग्दर्शन - ज्ञानस्वरूप स्वयं समयसार कैसे होता है इसका स्पष्टीकरण करते हुए इसी समयसारकी गाथा १४४ की टीकामें बतलाया है अयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शन- ज्ञानव्यपदेशं किल लभते । य: खल्वखिलनयपचाक्षुण्णतया विश्रान्तसमस्तविकल्प व्यापारः स समयसारः । जो नियमसे समम्त नयपक्ष से अक्षुण्ण रह कर समम्त विकल्पों के व्यापारसे निवृत्त हो गया है. यह समयसार है। वास्तव में इसी एकको सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान यह संज्ञा प्राप्त होती है । यह कथन अपने में बहुत ही स्पष्ट है । इससे भी एकमात्र यही ज्ञात होता है कि जिसे गति, मार्गणास्थान और गुणस्थान आदिरूप समस्त भेद विकल्पांसे रहित मात्र सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञानस्वरूप साक्षात् समयसाररूप होना है उसे परसे भिन्न अभेदरूप एकमात्र ज्ञायकस्वरूप आत्माका आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि धर्म प्राप्ति के लिए एकमात्र चैतन्य चमत्कारस्वरूप भगवान् आत्माका अवलम्बन ही उपादेय है । इस प्रकार सम्पूर्ण वीतरागी जिनशासन में एकमात्र टंकोत्कीर्ण निज कारण परमात्मा परम पारिणामिक भावरूप ज्ञायकस्वभाव के निर्विकल्प आलम्बनको ही कारण परमात्मासे तादात्म्यभावको प्राप्त हुई ( सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्ध होने तककी) समस्त निर्मल पर्यायोंकी प्राप्तिका कारण जानकर हे भव्य जीवो ! अपने उपयोग में उसका आलम्बन लेकर शुद्ध रत्नत्रय प्रगट करो। ऐसा करनेसे दुःखरूप भावमरणसे छुटकारा पाकर अविनाशी निराकुलतालक्षण आत्मसुखके अधिकारी बनोगे ।
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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