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________________ अब इसके प्रकाश में इसी समयसार में जो अज्ञानीका लक्षण बतलाया है उसे पढ़िए कम्मं । १९ ।। कम्मे utara for a अहमिदि अहकं च कम्म जा एमा खलु बुद्धी अपडिबुद्धी हवदि ताव ।। जो अन्तरंग में मोह, राग और द्वे रूप कर्मके परिणाम उत्पन्न होते हैं उनमें तथा बाहर शरीरादिरूप जो नोकर्मके परिणाम उत्पन्न होते हैं उनमें 'मैं हूँ या ये मैं हूँ' ऐसा अनुभवता है वह अप्रतिबुद्ध- अज्ञानी है और उसीका नाम परसमय है || ९ || से समय और *मसे अन्तरात्मा और after भी इन्हीं कहते हैं । इस recent व्याख्या करते हुए श्री नियमसार में लिखा है अंतर - बाहिरजपे जो बट्ट सो हवेइ बहिरप्पा | जप्पे जो ण वह सो उच्च अंतरंगप्पा ॥। १५० ।। जो अन्तरंग और बहिरंग जल्पमें स्थित है वह बहिरात्मा है और जो सब जल्पों में स्थित नहीं वह अन्तरात्मा कहा जाता है । यहाँ जल्प' शब्द मुख्यतया विकल्प-रागपरिणामका सूचक है। तात्पर्य यह है कि जो मैं इसका कर्ता हूँ, शरीरादि पर द्रव्य मेरे हैं, मैं शरीरादि पर है, मैं यदि घरका निर्माण न करूं तो वह कैसे बने, मैं इसका भला और इसका बुरा करने में समर्थ इत्यादि रूप विविध विकल्प कर तन्मय हो चना है वह रात्मा है और जो ऐसे विकल्पको अज्ञानका परिणाम जानकर इनसे भिन्न अपने ज्ञारक भावको स्वात्मारूपसे अनुभवता है वह अन्तरात्मा है । Pattam226 7 C यह समय और परसमय या ज्ञानी और अज्ञानी या अन्तरात्मा और बहिरात्माकी व्याख्या है। अतएव प्रत्येक संसारी प्राणीका कर्तव्य है कि वह स्वसमय और परसमयकी यथार्थ व्याख्याको जान कर स्वसमयरूप बनने के उद्यममें लगे | धर्मके लिए आश्रय करने योग्य कौन ? श्री. मांगीलालजी जैन, गुना सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी एकता ही सच्चा मोक्षमार्ग है। मोह और क्षोभसे रहित आत्माका परिणाम भी इसीका नाम है। इसीको धर्म कहते हैं । अत्र विचार यह करना है कि इसकी प्राप्ति कैसे हो ? देव, गुरु और शास्त्रका आश्रय करनेसे careerरूप धर्मकी प्राप्ति होगी यह तो कहा नहीं जा सकता ? क्योंकि देव, गुरु और शास्त्र पर हैं। इनका आलम्बन लेनेसे रागरूप पुण्य परिणामकी उत्पत्ति भले ही हो जाओ, पर धर्मकी उत्पत्ति नहीं हो सकती । पूजा, व्रत, संयमरूप प्रवृत्ति करनेसे धर्मकी उत्पत्ति होती है यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये स्वयं पुण्य परिणाम हैं, अतएव स्वयं रागरूप होने से ॐ
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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