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________________ & कानजी स्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ ये या इसी प्रकार के दूसरे अज्ञानको मेटने के अभिप्रायसे आगममें समय अर्थात् आत्मा के दो भेद किये हैं- म्वसमय और परसमय । इनकी व्याख्या करते हुए समयसार में बतलाया हैजीवो चरित दंसण-पाणदिउ तं हि सममयं जाण । पुग्गलकम्मपदेसट्टियं च तं जाण परसमयं ||२|| जो जीव अपने चारित्र, दर्शन और ज्ञानम्वभाव में स्थित है उसे नियमसे स्वसमय जानो और जो जीव पुगलकमके प्रदेशोंमें स्थित है उसे परममय जानो ||२|| आशय यह है कि अपने अज्ञानके कारण संयोगको प्राप्त हुए कर्मको निमित्त कर जो नर, पशु, देव और नारकरूप विविध अवस्थाएं होती हैं तथा स्त्री, पुत्र आदिरूप विविध संयोग मिलते हैं उन्हें अपना स्वरूर जान कर जो जीव उनमें रत रहता है वह परसमय है. और जो अपने दर्शन - ज्ञानम्यभाव में निश्चित प्रवृत्तिरूप आत्मतत्त्व के साथ एकत्वरूपमें लीन होकर प्रवृत्ति करता है तब दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित होनेसे अपने स्वरुपको एकत्वरूपसे एक ही समय में जानता तथा परिणमता हुआ वरतता है वह स्वसमय है । स्वभाव में स्थित होनेका नाम स्वसमय और कत्वबुद्धिवश परभाव में स्थित होनका नाम परसमय है यह उक्त कथनका सार है। इसी विषयको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसार में आचार्य कुन्दकुन्देव कहते हैं जे पजरसु णिग्दा जीवा परममचिग ति णिहिडा । हामि ते मगममया मुदत्वा ॥ ४॥ जो जीव पर्यायोंमें लीन हैं अर्थात अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावको भूलकर जिस कालमें जो पर्याय प्राप्त होती है उसे आत्मा मान कर मात्र उसे आत्मरूप से अनुभवते हैं उन्हें परसमय कहा गया है और जो आत्मस्वभाव में स्थित हैं अर्थात जिस समय जो पर्याय प्राप्त होती है उसे गौणकर त्रिकाली ज्ञायकभावके आलम्बनसे आत्मस्वभावको अनुभवते हैं उन्हें स्वसमय जानना चाहिए ॥ ८४ ॥ यहाँ समयका नाम ज्ञानी और परसमयका नाम अज्ञानी है। झानी वह जो राग भाव के आश्रयसे 'करोति' क्रियाका कर्ता न बनकर मात्र 'जानाति' क्रियारूप परिणमता है, इस लिए स्वसमय अर्थात ज्ञानीका लक्षण करते हुए आचार्य कुन्दकुन्ददेव समयसार में कहते है-कम्मम्स य परिणामं णोकम्मम्स य तब परिणामं । करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी ॥ ७५ ॥ जो मोह, राग, द्वेष, सुख और दुख आदि रूपसे अन्तरंग में उत्पन्न होनेवाले कर्मके परिणामको तथा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द, बन्ध, संस्थान स्थौल्य और सौक्ष्म्य आदि रूप से बाहर उत्पन्न होनेवाले नोकर्मक परिणामको नहीं करता है, मात्र इनके ज्ञानको कर्मरूप से करता हुआ अपने आत्माको जानता है वह आत्मा कर्म और नोकर्मके परिणामसे अत्यन्त भिन्न ज्ञानस्वरूप होता हुआ ज्ञानी है और इसीका नाम स्वममय है ||७५ ||
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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