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________________ - . A LITERATURES SAHAYE HARDWAR SMINE 8 MA क्षायिक ये दो प्रकार और माने गये हैं। किन्तु इसप्रकर जो सम्यग्दर्शनके तीन भेद किय गये हैं सो ये परकी अपेक्षासे कथनमात्र है। व तवमें वह एक है, स्वभाव दृप्टिसे देखने पर उसमें ऐसे भेद सम्भव नहीं है। आगममें जहाँ भी निसर्गज और अधिगमज या आज्ञा आदि सम्यग्दर्शनके भदोंका निर्देश है सो वहाँ भी यही बात जान लेनी चाहिए। इसप्रकार सम्यग्दर्शन और उसकी प्राप्तिका उपाय क्या है इसका संक्षेपमें निर्देश किया। स्व समय-परसमय श्री डा. विद्याचन्द्रजी गुः शहा, हीराबाग, बम्बई समय शब्दको व्युत्पनिलभ्य अर्थ है-'समयत एकीभावेन म्वगुणपर्यायान् पति गच्छतीति समयः'-जो समयते अर्थात एकीभावसे अपने गुण-पर्यायों को प्राप्त होता है वह समय है । समय शब्दकी इस व्युत्पत्तिके अनुसार जिस प्रकार पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्योंकी समय संज्ञा है उसी प्रकार जीवद्रव्यकी भी समय मंज्ञा है । विशेषता इतनी है कि जीव का अमाधारण लक्ष ग चनना अर्थान ज्ञान-दर्शन है। इसमें चारित्र, वीर्य और मुख आदि और भी अनन्त गुण हैं, परन्तु उन सबमें इसका चेतना एक एमा असाधारण धर्म है जिसके कारण यह अन्य पुदगल आदि समस्त द्रव्योंसे पृथक् अनुभवमें आता है, इसलिए अन्य द्रव्यांस पृथक्करणराल अपने असाधारण धर्मक आश्रयसे 'समय' शब्दद्वारा इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होना है...-'समयत एकत्वेन युगपञ्जानाति गच्छतीति समयः -जो समयते अर्थात एकरूपसे एक साथ जानता हुआ प्रवर्तता है वह समय नामक जीवद्रव्य है । ममय दाब्दद्वारा जीवद्रव्यकी एसी व्युत्पत्ति करने पर विदित होता है कि जीवका मुख्य म्वरूप ज्ञान, दर्शन और स्वरूपस्थितिरूप चारित्र है। किन्तु अनादि कालसे इसकी अपने अन्नानके कारण संयोगको प्राम हुए कर्म और नोकर्ममें एकत्वबुद्धि हो रही है। अज्ञानकी बड़ी महिमा है । इस कारण ही जिस प्रकार मृगमरीचिकामें जलकी बुद्धि होनेसे हिग्ण उसे पानको दोड़ते हैं तथा अन्धकार में पड़ी हुई रसी में सर्पका अध्याम होनेसे लोग भयसे भागते हैं उसी प्रकार अनादि कालीन अज्ञानके कारण इस जीवको अपने यथार्थ स्वरूपका भान न होनेसे न केवल उसकी परमें एकत्वबुद्धि हो रही है अपि तु परसे सुख-दुखकी खोटी कल्पना वश परमें इष्टानिष्ट बुद्धि करता हुआ आकुलतावश यह संसारका पात्र बना चला आ रहा है। देखिए अपने अज्ञानकी महिमा । इस कारण इसकी जो जो विपरीत मान्यताएं बनी चली आरही हैं उन्हींको आगे संक्षेपमें दिखलाते हैं १. अन्य द्रव्योंके समान जीव द्रव्य भी नित्य, एक ओर ध्रुवस्वभाववाला हो कर भी उत्पाद-व्यय परिणाम लक्षणवाला है । किन्तु यह अपने त्रिकाली शाश्वत ज्ञायक स्वभावको तो भूला हुआ है और कर्म तथा नोकर्मको निमित्त कर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवरूप
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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