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________________ ) कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ । जब इस जीवन अधःकरणका प्रारम्भ किया था तभीसे इसके उपयोगका आलम्बन सकल उपाधियोंसे रहित चिद्घनम्वरूप एकमात्र निर्विकल्प आत्मा होता है। प्रारम्भसे लेकर तीनों करणोंका काल समाप्त होने तक निरन्तर इसका एकमात्र चिद्घनम्वरूप निर्विकल्प ऐसे आत्माका विकल्प उदित रहता है कि जो एक है, जिसका स्वरूप सकल उपाधियोंसे रहित है, ज्ञान-दर्शन जिसका स्वभाव है, जो नारकादि पर्यायोंको पश नहीं करता, वृद्धि-हानिसे रहित है, जिसमें किसी प्रकारकी विशेषता परिलक्षित नहीं होती, जो स्पर्शादि गुणवाले पुद्गल द्रव्यसे भिन्न है, जो उसके स्पर्शादि गुणांसे भी भिन्न है, जिसके स्वभावमें द्रव्येन्द्रियोंका आलम्बन नहीं है, क्षायो पशमिक ज्ञानरूप भावेन्द्रियां भी जिसका स्वभाव नहीं है, जो मकल साधारण एक संवेदन म्वभाववाला है, परके कारण जो ज्ञायक नहीं है, बरूपसे ज्ञायक है। यद्यपि अभी तीनों करणोंका काल समाप्त होने तक उसके उपयोगमें पूर्वोक्त प्रकारका विकल्प बना हुआ है, उसका अभाव होकर निर्विकल्प आत्मानुभूति उदित नहीं हुई है। पर इसमें अन्य मब प्रकार के व्यवहारका निषेध होकर निश्चयस्वरूप मात्र आत्माका आलम्बन होनेसे उपयोगकी दृढ़तावश न केवल अनन्तगुणी विशद्धि उत्पन्न होती है। किन्तु उसके साथ वाह्यमें आयकर्मक सिवा सत्ता में स्थित कर्मों में भी स्वयमेव अनेक प्रकारकी उलट-फेर होने लगती है, क्योंकि इनका ऐमा ही निमित्तनैमित्तिक योग है। साथ ही उस कालमें जो ननन कमों का बन्ध होता है उसमें भी बड़ परिवर्तन होने लगते हैं। इस जीवके अभी मिथ्यात्व कर्मका उड्य है पर उपयोग वलसे वह मिथ्यात्व और उसके कार्यरूप एकत्वबुद्धिको न अनुभवना हुआ मकल व्यवहार में रहिन मात्र निर्विकल्प आत्माके चिन्न नमें सीमित हो जाता है। अर्थात उमक एकत्वनुद्धिरूप. इष्टानिष्टरूप और ज्ञयको जाननेकी इच्छारूप अन्य अशेष विकल्पोंका अभाव होकर एकमात्र निर्विकल्प आत्माकं म्वरूप मननका ही विकल्प शेप रह जाता है । तीनों कारणोंके कालमें ऐसी अपूर्व उपयोगकी महिमा इस जीवके प्रगट होती है जिसके फलम्बाप करणकाल. समाप्त होते ही यह उक्त प्रकारके विकल्पसे भी नियत्त होकर निर्विकल्प आत्मानुभतिरूप स्वयं परिणम जाता है। वहाँ उपयोग और उससे अभेदस्वरूप निर्विकल्प आत्माकी जो एकरसताएकाकार परिणमनशीलता प्रगट होती है वह वचन अगोचर है। जिमप्रकार नमककी डली भीतर-बाहर सर्वत्र क्षार रसरूप परिणमिती हुई प्रतिभासित होती है उसीप्रकार यह आत्मा अपने उपयोग म्वभावके द्वारा ज्ञानभवनम्प परिणमनके सिवा अन्य सब प्रकारके विकल्पोंसे निवृत्त हो जाता है। यह है अनुभूति क्रियासम्पन्न सम्यग्दृष्टिका सच्चा स्वरूप । श्रद्धागुणकी ऐसी ही महिमा है कि उसकी स्वभाव पर्यायके उदित होते ही इस जीवको आत्माकी तन्मय भावसे वह अनुभूति होती है जिसे परम जिन अरिहन्त परमेष्ठी और सिद्ध परमेष्टी साक्षात् अनुभवते हैं। यह सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका वह प्रकार हैं जिसे निमित्तकी अपेक्षा औपशमिक संज्ञासे विभूषित किया जाता है। इसके सिवा निमित्तकी अपेक्षा सम्यग्दर्शनके क्षायोपशमिक और HTheremon
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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