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________________ त्रिशुद्धि उत्पन्न होती है वह अतिमन्द होती है, क्योंकि इस करणको करनेवाले सम समयवाले जीवोंके परिणामोंमें भी सदृशता और विसदृशता पाई जाती है और भिन्न समयवाले जीवोंके परिणामों में भी सदृशता और विसदृशता पाई जाती है। कोई नियम नहीं । इस करणके कालमें स्थिनिकाण्डकघात, अनुभाग काण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम नहीं होता । किन्तु प्रत्येक समय में अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ यह जीव प्रशस्त कर्मों का द्विस्थानिक अनुभागबन्ध और प्रशस्त कर्मोंका प्रत्येक समय में अनन्त गुणी वृद्धिसे युक्त चतु स्थानिक अनुभागबन्ध करता है । यहाँ एक समान स्थितिबन्धका का अन्तर्मुहूर्त है | उसके पूरा होनेपर अगले- अगले अन्तर्मुहूर्त में पल्यके संख्यातवें भाग कम स्थिति - बन्ध करता है। इस प्रकार इस करण में संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण होते हैं । और इस प्रकार अधःकरके प्रथम समय में होनेवाले स्थितिबन्धसे उसके अन्तिम समय में होनेवाला स्थितिअन्य संख्यातगुणा हीन होता है । इसके बाद यह जीव अपूर्वकरण में प्रवेश करता है। यहाँ एक समय में प्रवेश करनेवाले जीवों के परिणामों में सदृशता भी पाई जाती है और विसदृशता भी पाई जाती है। किन्तु भिन्न समयवाले जीवोंके परिणामों में विसदृशता ही होती है। एक मात्र आत्मस्वभाव के सन्मुख उपयोगवश उत्तरोत्तर यहाँ ऐसी विलक्षण त्रिशुद्धि प्राप्त होती जिससे इस करण में प्रवेश करनेके प्रथम समयसे लेकर स्थितिकाण्डकवात, अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम ये चारों कार्य स्वतः होने लगते हैं । विशुद्धिके माहात्म्यवश इस करण में और भी अनेक प्रकार की विशेषताएं होने लगती हैं । इसके बाद यह जीव अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है। इसमें एक साथ प्रवेश करनेवाले जीवोंका परिणाम एक ही होता है और भिन्न समय में प्रवेश करनेवाले जीवोंका परिणाम भिन्न ही होता है । जो विशेषताएं अपूर्वकरण में प्रारम्भ हुई थीं वे सब विशेषताऐं यहाँ सुलभ हैं। साथ ही अन्य जो विशेषताएं यहाँ प्राप्त होती हैं उनमें यह विशेषता उल्लेखनीय है कि जब इस जीवके अनिवृत्तिकरणका संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाता है तब यह यदि अनादि मिध्यादृष्टि है तो freeteer और सादि मिथ्यादृष्टि है तो दर्शन मोहनीयकी जिन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है उन सबका अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण करते समय अनिवृत्तिकरणका जितना काल शेष है तत्प्रमाण मिथ्यात्वके या दर्शनमोहनी यकी जिन प्रकृतियोंकी सत्ता है उनके निपकों को छोड़कर ऊपरके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निपेकोंका नीचेकी और ऊपरकी स्थितियों में क्रमसे निक्षेप करके उनका अभाव करता है । फिर इस करणको करनेके बाद दर्शनमोहनीय के atest स्थिति में स्थित निपेकोंको क्रमसे गला कर अनिवृत्तिकरणके समाप्त होने पर सकल उपाधिसे रहित एकमात्र चिद्घनस्वरूप निर्विकल्प आत्माका तन्मय होकर प्रत्यक्ष अनुभव करता हुआ साक्षात् सम्यग्दृष्टि होता है ।
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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