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________________ AMPARANAamripadandi EduRev SEASORRESS SHAR ITA) कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथा N atiMetachanAIADuhityali-katha.roni-uPond . अथवा स्रो, पुरुष और नपुंसकरूप अथवा क्रोध, मान, माया और लोभरूप अथवा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान आदिरूप जब जो पर्याय प्राप्त होती है, मात्र उसे अपना आत्मरूप मानकर उसके संयोग और वियोगमें सुग्बी दुखी होता आ रहा है । अपने अज्ञानके कारण संयोगको प्राप्त हुए कर्म और नोकर्ममें एकत्व या निजबुद्धि होनेका फल यह नारक आदिरूप पर्यायोंको प्राप्त होना है, इसे यह समझना ही नहीं चाहता । कदाचित् श्री गुरु करुणाभावसे अपने उपदेश द्वारा इस संसारी जीवको ऐसा ज्ञान कराते भी हैं कि हे आत्मन् ! तेरा स्वभाव ज्ञान-दर्शन है, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श यह पुलका स्वभाव है । पुद्गल जड़ है और नू चेतन है । पुद्गल आदि पर द्रव्योंमें रहनेवाली एकत्वबुद्धिको छोड़, अपने त्रिकाली ज्ञायक स्वभावका आश्रय ले। इसी में तेरा कल्याण है, तो भी पर्यायमूढ़ होनेके कारण यह संयोगमूलक नारकादि पर्यायोंसे भिन्न अपने त्रिकाली ज्ञायकम्वभावपर दृष्टिपात नहीं करता और नाना प्रकारकी बातें बना कर संयोगनिमित्तक जब जो पर्याय प्राप्त होती है उसी में आत्मवृद्धि करता है । यह तो है कि जब शुभ या अशुभ भावरूप आत्मा परिणमता है तब वह तन्मय होता है । आत्माके ही वे परिणाम हैं, अन्य नहीं । परन्तु कर्म और नोकर्मको निमित्त कर इस प्रकारके जो भी शुभ या अशुभ परिणाम होते हैं उन्हींका नाम तो आत्माका संसार है। घर, स्त्री, पुत्र, कुदम्ब धन और धान्यादि तो प्रगट पर पदार्थ हैं । ये तो आत्माके वास्तविक संसार नहीं। एमी अवस्थामें यह तो हो नहीं सकता कि यह संसारी जीव कर्मादिको निमित्त कर प्राप्त हुए अपने शुभ परिणामोंमें एकत्वबुद्धि भी किये रहे और इनमें एकत्वबुद्धिका त्याग हुए विना इसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति भी हो जावे । वास्तवमें इसे कर्म और नोकर्मका त्याग नहीं करना है वे तो इससे पृथक् हैं ही। कर्म और नोकर्मके संयोगका मूल कारण जो अपने शुभ और अशुभ भावोंमें अहंकार और ममकार भाव है, वास्तवमें इसे इन्हींका त्याग करना है, क्योंकि वे आत्माके परिणाम हैं और अपने अज्ञानके कारण आत्मामें ही उत्पन्न होते रहते हैं । उत्पाद-व्ययके नियमानुसार जब एक शुभ या अशुभ भावका व्यय होता है तब दूसरे शुभ या अशुभ भावका उत्पाद होता है। और इस प्रकार इसके संसारकी परिपार्टी चलती रहती है। अब यदि इसे अपने इन शुभ-अशुभ भावरूप संसारका अन्त करना इष्ट है तो इनमें पर बुद्धि करनेसे ही इनका अन्त हो सकता है । ये मेरे स्वरूप हैं ऐसी बुद्धि करनेसे तो इनका अन्त होना त्रिकाल में सम्भव नहीं है । मैं अशुभ भाव तो न कम, मात्र शुभ भाव करूँ। इससे उत्तम गतिकी प्राप्ति होगी और अन्तमें इससे मुझे मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो जावेगी एसा विकल्प भी इसकी शुभ-अशुभ भावों में एकत्व बद्धिका ही सचक है। भला विचार तो कीजिए कि जो शुभ भाव स्वयं संसाररूप है उसकी चाह या प्राप्तिसे उससे विरुद्ध म्वभाववाले मोक्षमार्गकी प्राप्ति होना कैसे सम्भव है अर्थात् त्रिकालमें सम्भव नहीं है । इसलिए संसार पर्यायरूप जो शुभ भाव हैं वे भी अशुभ भावोंके समान हेय हैं ऐसा जान कर जो वीतराग भावोंके मूल कारण अपने एकमात्र त्रिकाली ज्ञायक भावका आश्रय लेता है, उसे आत्मारूपसे PORNIMAHARIHA disarAMAN Licn. ..
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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