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________________ कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ यहाँ पर आचार्य समन्तभद्र ऐसे अज्ञानी प्राणी के लिए 'जन्तु' शब्दका प्रयोग कर रहे हैं। इससे ज्ञात होता है कि जिस प्रकार लोकमें 'जन्तु' शब्द क्षुद्र प्राणीके लिए प्रयुक्त होता है। उभी प्रकार स्वामी समन्तभद्र उक्त प्रकारकी धारणाको भो अति क्षुद्र अज्ञानमूलक मानते हैं । तभी तो उन्होंने ऐसी धारणावाले प्राणीको 'जन्तु' शब्द द्वारा संबोधित किया है । ऐसा दो प्रकारका उल्लेख निमित्त है उसे प्रायोगिक निमित्तकारणों को दो भागों में जिनागम में कार्यों के लिए प्रायोगिक कार्य और विस्रसा का आया है । वहाँ बतलाया है कि जिस कार्य में पुरुषका प्रयत्न बाह्य कार्य कहते हैं और शेषकी विस्रमा कार्य संज्ञा है । उत्तर कालमें विभाजित किया गया दृष्टिगोचर होता है-- एक वे जो अपने क्रिया- व्यापार द्वारा निमित्त होते हैं । जैसे वायु आदि । और दूसरे वे जो अपनी मात्र उपस्थितिद्वारा निमित्त होते हैं। इस कारण जैन परम्परामें निमित्तकारण के प्रेरकनिमित्त और उदासीननिमित्त कारण ऐसे दो भेद किये जाने लगे हैं । इस परसे कुछ विद्वान् ऐसा अर्थ करते हुए प्रतीत होते हैं कि जो निमित्त अपनी प्रेरणाद्वारा किसी भी कार्यको नियत समयसे आगे-पीछे कर देते हैं उनकी प्रेरक कारण संज्ञा हैं और शेषकी उदासीननिमित्त संज्ञा है | प्रेरक कारणके विषय में अपने इस मन्त्रको पुष्ट करने के लिए वे व्यवहारनयकी मुख्यतासे आगममें प्रतिपादित अकालमरण, संक्रमण, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा आदिको उदाहरण रूपमें उपस्थित करते हैं। किन्तु उनका यह कथन निश्चय व्यवहारकी पद्धति स्वरूपको न समझनेका ही फल है । आगममें ता यह कथन निमित्तोंकी मुख्यता दिखलाने के लिए ही किया गया है । इसका यदि कोई यह अर्थ करे कि उपदान कारण के अभाव में यदि कोई कार्य केवल निमित्तोंके बलसे हो जायगा तो उसका ऐसा अर्थ करना कार्य-कारणपरम्पराको अनभिज्ञताका ही सूचक माना जायगा । जब कि आगम में उपादानका यह लक्षण किया है कि अनन्तर पूर्व पर्यायविशिष्ट द्रव्वको उपादान कारण कहते हैं। ऐसी अवस्था में इस लक्षणके अनुसार उपादान कारणके अभाव में केवल निमित्तके बलसे कोई कार्य हो जायगा यह कैसे माना जा सकता है । अर्थात् नहीं माना जा सकता । अतएव कार्य मात्र उपादानसे ही होता है और जब कार्य होता है तब उसका कोई निमित्त अवश्य होता है यह जो आगमका अभिप्राय है उसे ही यथावत मानना चाहिए । प्रत्येक कार्यके प्रति सब निमित्त समान हैं इस तथ्यको ध्यान में रखकर आचार्य पूज्यपाद उच्छ अभिप्रायकी पुष्टि करते हुए इष्टोपदेश में कहते हैं नाज्ञो विज्ञत्वमायाति विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति । निमित्तमानमन्यस्तु गतेर्धर्मास्तिकायवत् ॥ ३५ ॥ अज्ञ विज्ञताको नहीं प्राप्त होता और विज्ञ अज्ञताको नहीं प्राप्त होता । इतना अवश्य है कि जिसप्रकार गतिक्रियाका धर्मास्तिकाय निमित्तमात्र है उसीप्रकार अन्य सब पदार्थ निमित्तमात्र हैं ॥ ३५ ॥
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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