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________________ - CHAR BA R AMETHARAASAR भट्टाकलंकदेव भी इसी तथ्यको स्वीकार करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक (अ. १ सूत्र. २० ) में कहते हैं यया मृदः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामाभिमुख्ये दण्ड-चक्र-पौरुपेयप्रयत्नादि निमित्तमात्रं भवति । यतः सत्स्वपि दण्डादिनिमित्तेषु शर्करादिप्रचितो मृत्पिण्डः स्वयमन्तर्घटभवनपरिणामनिरुत्सकत्वान्न घटीभवति, अता मृत्पिण्ड एव बाह्यदण्डादिनिमित्तसापेक्ष आभ्यन्तरपरिणामसानिध्याद् घटो भवति न दण्डादय इति दण्डादीनां निमित्तमात्रत्वं भवति । जैसे मिट्टीके स्वयं भीतर घटभवनरूप परिणामके अभिमुख होने पर दण्ड, चक्र और पुरुषकृत प्रयत्न आदि निमित्तमात्र होते हैं, क्योंकि दण्डादि निमित्तोंके रहने पर भी बालुकाबहुल मिट्टी का पिण्ड स्वयं भीतर घटभवनरूप परिणाम (पर्याय) से निरुत्सुक होनेके कारण घट नहीं होता, अतः बाह्य में दण्डादि निमित्त सापेक्ष मिट्टीका पिण्ड ही भीतर घटभवनरूप परिणामका सानिध्य होनेसे घट होता है, दण्डादि घट नहीं होते, इसलिए दण्डादि निमित्त मात्र हैं। उपादान और निमित्त इनकी युति है, इसलिए केवल उपादानसे कार्यकी उत्पत्ति मानने पर एकान्तका प्रसंग आता है यह कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि उपादान स्वयं कार्यका प्रागभावरूप है, जब कि निमित्तका उसमें अत्यन्ताभाव है और अनेकान्त दो द्रष्योंमें घटित नहीं होता, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वयं अनेकान्तस्वरूप होती है। अतः जिसप्रकार स्वरूपकी अपेक्षा कार्यरूप द्रव्यमें निमित्तका अत्यन्ताभाव है उसीप्रकार कारणकी अपेक्षा भी कार्यद्रव्यमें निमित्तका अत्यन्ताभाव है । और जिसका जिसमें अत्यन्ताभाव होता है वह उसका स्वरूप न होने के कारण न तो कार्य ही होता है और न कारण ही । यही कारण है कि प्रत्येक कार्यमें निमित्तको स्वीकार करके भी उसे व्यवहारहेतु ही कहा है। अतएव प्रकृतमें यही अनेकान्त घटित होता है कि यथार्थ हेतुरूपसे कार्यमें उपादानकी अस्ति है और निमित्तकी नास्ति है । यही कारण है कि व्यवहार पक्षको गौण करके निश्चय पक्षकी मुख्यतासे समयसारमें यह वचन कहा है अण्णदविएण अण्णदव्यस्स ण कीरए गुणुप्पाओ । तम्हा उ सव्वदव्या उत्पञ्जते सहावेण ॥ ३७२ ।। अन्य द्रव्यके द्वारा अन्य द्रव्यके गुण (विशेषता-पर्याय) का उत्पाद नहीं किया जाता, इसलिए सभी द्रव्य अपने-अपने स्वभावसे उत्पन्न होते हैं ॥ ३७२ ।। इसकी टीका करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं-- न च जीवस्य परद्रव्यं रागादीनुत्पादयतीति शस्यम् , अन्यद्रव्येणान्यद्रव्यगुणोत्पादकरणस्यायोगात, सर्वद्रव्याणां स्वभावेनैवोत्पादात् । और पर द्रव्य (द्रव्यकर्म-नोकर्म) जीवके रागादिकोंको उत्पन्न करते हैं ऐसी शंका नहीं
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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