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________________ परसे नहीं होती । परन्तु कार्य पर द्रव्यकी जिस पर्यायके सद्भावमें या उसे लक्ष्य कर होता है, उसके द्वारा उस कार्यका ज्ञान कराने के अभिप्रायसे उममें पराश्रितपनेका व्यवहार अवश्य किया जाता है। यहाँ व्यवहारका लक्षण ही यह है कि जो अन्यके कार्यको अन्यका कहे उसे व्यवहार कहते हैं। स्पष्ट है कि कार्य तो उपादानसे ही होता है। क्योंकि वह उसकी पर्याय है। निमित्तसे नहीं होता, क्योंकि वह उसका परिणाम नहीं। परन्त निश्चयके साथ व्यवहारकी यति बतलाने लिए निमित्तसे कार्य हुआ एसा व्यवहार अवश्य किया जाता है जो सप्रयोजन होनेसे आगममें ग्राह्य माना गया है। प्रत्येक मनुष्य क्षायिक सभ्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका प्रारम्भ केवली और श्रुतकेवलीके पादमूलमें ही करता है ऐमा नियम है। पर इसका इतना ही तात्पर्य है कि जब जब किसी मनुष्यको क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है तब तब ऐसा योग अवश्य होता है। इससे अधिक उसका दूसग अभिप्राय नहीं । अन्यथा उन मब वेदकसम्यग्दृष्टियोंको क्षायिक सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होनी चहिए जो केवली और श्रुतकेवलीके पादमूलमें अवस्थित हैं। परन्तु ऐसा नहीं होता। किन्तु जिस मनुष्यक क्षायिक सम्यग्दर्शनको उत्पन्न करनेका पाककाल आजाता है उसीको उसकी उत्पत्ति होती है और योग भी उसीके अनुरूप मिलता है। यदि पाककालको प्रधानता न दी जाय तो वही मनुष्य इन दोनोंक पादमूलमें वर्षों से रह रहा है और वेदक सभ्यग्दृष्टि भी है। फिर क्या कारण है कि पहले उसकी उत्पत्ति नहीं हुई। इससे सिद्ध है कि प्रत्येक कार्य स्वकालकै प्राप्त होने पर ही होता है, अन्य काल में नहीं । प्रत्येक कार्यकी उत्पत्तिका ऐसा ही योग है, उसे अन्यथा नही किया जा सकता। यद्यपि कायोत्पत्तिकी यह अमिट व्यवस्था है तथापि यह संसारी प्राणी अपने अज्ञानवश रामा मानता है कि 'मैंने अन्य द्रव्यक इस कार्यको किया, मैं चाहूँ तो इसमें उलट-फेर कर हूँ आदि । अरे मूव ! तुझमें जब अपनी पर्यायों में उलट-फेर करनेकी क्षमता नहीं है तब तूं दृमरेके कार्यों को करने या उलट-फेर करनेका अहंकार क्यों करता है। स्वामी समन्तभद्र एसे अन्नानी प्राणीक इस अहंकारको भले प्रकार जानते थे । यही कारण है कि वे इसके इस अहंकारको घड़ानेके अभिप्रायसे कार्य-कारण परम्पराकी सम्यक् व्यवस्थाका ज्ञान कराते हुए स्वयंभूम्तोत्रमें लिखते हैं अलंध्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंगा। __ अनीश्वरो जन्तुरहंक्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी : ॥३३॥ आपने (जिनदेवने) यह ठीक ही कहा है कि हेतुद्वयसे उत्पन्न होनेवाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है ऐसी यह भवितव्यता अलंध्यशक्ति है, क्योंकि संसारी प्राणी स्वयं परके कार्य करनेमें या. अपनी पर्यायों में हेर-फेर करनेमें असमर्थ होते हुए भी 'मैं इस कार्यको कर सकता हूँ' इस प्रकारके अहंकारसे पीड़ित है। किन्तु वह उस (भवतिष्यता)के बिना अनेक सहकारी कारणोंको मिलाकर भी कार्यों के सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता ॥३३॥
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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