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कानजी स्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ
होता है और जो निमित्तादिकी उपाधि युक्त (विकारी) आत्माको अनुभवता है वह नियमसे अशुद्ध आत्माको प्राप्त होता है ।
मोक्ष जैनदर्शन के अभ्यास और तदनुरूप आचरणका साक्षान फल है । जो इसे समझकर स्वावलम्बी बनता है वही मोक्षका पात्र होता है ।
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अभाव चतुष्टय
श्री. पं. सूर्यनारायणजी उपाध्याय, जैन-बौद्ध-मीमांसादर्शनाचार्य, एम. ए. प्राध्यापक दर्शन - विभाग श्री स्या. म. वि. वाराणसी
Tera क्या है और उसका पदार्थ व्यवस्था में क्या स्थान है इस तथ्यका निर्देश करते हुए आचार्य समन्तभद्रने युक्त्यनुशासन ( कारिका ५८ ) में उसे वस्तुके धर्मरूपसे स्वीकार करते हुए कहा है – ' भवत्यभावोऽपि च वस्तुधर्मः ।' इससे यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस प्रकार वैशेषिक दर्शनमें अभावको भावरूप पदार्थों से भिन्न नीरूपस्वभाव सर्वथा स्वतन्त्र पदार्थ स्वीकार किया है उसप्रकार जैनदर्शन उसे नीरूपस्वभाव स्वतन्त्र पदार्थ स्वीकार नहीं करता | जैनदर्शन में विवक्षाभेदसे उसका अस्तित्व स्वीकार करनेका यही कारण है । उदाहरण स्वरूप जीवद्रव्यको लीजिए' जीव है' ऐसा कहने पर प्रश्न होता है कि वह किस अपेक्षासे है । उत्तर होगा – स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा से है । पुनः प्रश्न होता है कि जिस प्रकार वह Forest अपेक्षा है उसी प्रकार क्या वह पर द्रव्यादिकी अपेक्षा से भी हैं तो कहना होगा कि नहीं, पर द्रव्यादिकी अपेक्षासे वह नहीं है। इस प्रकार जैसे एक जीव स्वव्यादिकी अपेक्षा अतिरूप और परद्रव्यादिकी अपेक्षासे नास्तिरूप सिद्ध होता है वैसे ही लोक में अपना अपना पृथक् पृथक् स्वतन्त्र अस्तित्व रखनेवाले जितने भी पदार्थ हैं वे भी स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा से अस्तिरूप हैं और परद्रव्यादिकी अपेक्षासे नास्तिरूप सिद्ध होते हैं। जैनदर्शन में अभावको भावान्तरस्वभाव स्वीकार करनेका यही कारण है । अनेकान्तका स्वरूपनिर्देश करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र समयसार की टीका में कहते हैं-- तत्र यदेव सत् तदेव असत् । सो उनके इस कथनसे भी उक्त अर्थकी ही पुष्टि होती है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र आतमीमांसा में कहते हैं
सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥
स्पष्ट है कि जैनदर्शन में पदार्थको एकान्तसे न तो भावरूप ही स्वीकार किया है और न एकान्तसे अभावरूप ही । किन्तु स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा भावरूपसे और पर द्रव्यादिकी अपेक्षा ererrari Best व्यवस्था की गई है।