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________________ जनदर्शन में नीरूपस्वभाव अभाव स्वीकार नहीं है इसका स्पष्ट शब्दों में निर्देश करते हुए आचार्य विद्यानन्द अष्टसहस्त्री ( पृष्ठ ९३ ) में लिखते हैं न हि वयमपि भावादर्थान्तरमेवाभावं संगिरामहे, तस्य नीरूपत्वप्रसंगात | इसी तथ्यको दुहराते हुए आचार्य प्रभाचन्द्र न्यायकुमुदचन्द्र (पृ. ४७५ ) में लिखते हैंयत् सर्वथा तुच्छस्वभावं न तद् वस्तु, यथा गगनेन्दीवरम् । सर्वथा तुच्छस्वभावश्व परैरभ्युपगतोऽभाव इति । इस प्रकार जैनदर्शन में तुच्छस्वभाव अभावको न स्वीकार कर जितने भी सत्स्वरूप पदार्थ हैं वे भावाभावात्मक स्वीकार किये गये है। जिस प्रकार जैनदर्शनमें तुच्छस्वभाव अभावको अणुमात्र स्थान नहीं है उसी प्रकार एकान्तसे भावरूप पदार्थको भी स्थान नहीं है, क्योंकि युक्तिसे विचार करने पर सर्वथा अभावरूप और सर्वथा भावरूप पदार्थकी सिद्धि नहीं होती । प्रत्येक पदार्थ भावाभावरूप कैसे हैं इसकी यह संक्षेप में मीमांसा है । पदार्थको एकान्तसे भावरूप मानने पर क्या आपत्तियाँ आती हैं और उनका निराकरण करनेके लिए प्रत्येक पदार्थ धर्मरूपसे अभावको कितने प्रकारका मानना इष्ट है इसका निर्देश करते हुए समन्तभद्र आतमीमांसा में लिखते हैं आचार्य भावैकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥ ९ ॥ कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निहवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां ब्रजेत् ॥१०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा ||११|| आशय यह है कि यदि पदार्थों को एकान्तसे भावरूप स्वीकार किया जाता है तो एक तो प्रत्येक पदार्थ सर्वात्मक हो जायगा, दूसरे प्रत्येक कार्य अनादि हो जायगा, तीसरे अनन्स हो जायगा और चौथे किसी पदार्थका कोई निश्चित स्वरूप नहीं बनेगा। आगे यही सिद्ध करके बतलाते हुए वे लिखते हैं- प्रागभावके नहीं मानने पर तो कार्यद्रव्य अनादि हो जायगा, प्रध्वंसाभावके नहीं माननेपर कार्य द्रव्य अनन्तपने को प्राप्त हो जायगा, अन्यापोहके नहीं मानने पर प्रत्येक पदार्थ सर्वात्मक हो जायगा और अत्यन्ताभाव के नहीं मानने पर स्वरूपसांकर्यके प्राप्त होनें से उसका व्यपदेश करना शक्य नहीं होगा । यह आचार्य समन्तभद्रका कथन है। इस परसे दो बातें व्यक्त होती हैं- प्रथम तो यह कि जिसप्रकार प्रत्येक पदार्थ भावरूप है उसी प्रकार अभाव भी उसका धर्म है। दूसरी यह कि एकान्तसे भावरूप पदार्थको मानने पर जो चार आपत्तियाँ उपस्थित होती है उनका परिहार महा
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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