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जैनदर्शनका महत्व
श्री सुदर्शनलालजी जैन एम. ए., दमोह जैनदर्शनका विश्वके दर्शनोंमें महत्त्वपूर्ण स्थान है। ईश्वरवादका निपंधकर जहां इस दर्शनने निमित्तकी कार्योत्पत्तिमें अपारमार्थिकता स्वीकार की है वहाँ यह दर्शन कार्योत्पत्तिमें उपादानको मुख्य हेतुरूपसे स्वीकारकर स्वावलम्बनके आधारसे प्रत्येक द्रव्यकी स्वतन्त्रताका उद्घोष करता है।
यह दर्शन न तो धातुके सर्वथा सत्पक्षको ही स्वीकार करता है और न असत्पक्षको ही। जो वस्तु स्वद्रव्यादिकी अपेक्षा सन है वही वस्तु परद्रव्योदिकी अपेक्षा असत् भी है। स्वामी समन्तभद्र आप्तमीमांसामें कहते हैं
सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ।
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । ऐसा कौन परीक्षक या लौकिक पुरुष है जो स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा सब पदार्थो को सत्म्वरूप ही स्वीकार नहीं करे और पररूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा असस्वरूप ही स्वीकार नहीं करे, क्यों कि ऐसा नहीं मानने पर पदार्थों की व्यवस्था ही नहीं बन सकती ।
इसी प्रकार एक-अनेक, नित्य-अनित्य और तत्-अतन् आदिके विषयमें भी जान लेना चाहिए । इस दर्शनको अनेकान्तदर्शन कहनेका कारण भी यही है। इस दर्शनमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्योंकी व्यवस्था इसी आधार पर की गई है।
यह जनदर्शनकी पृष्ठभूमि है । इस आधारसे जब हम जीवके संसारी और मुक्त इन भेदोंपर दृष्टिपात करते हैं तो विदित होता है कि जीवकी क्रमसे होनेवाली ये दो अवस्थाएं (पर्याय) हैं । उनका उपादान कारण वही स्वयं है। उसने अपने अज्ञानके कारण पर द्रव्यमें एकत्वबुद्धि की, अर्थात् राग (मिथ्यात्व-राग-द्वेष)के कारण पर द्रव्यको अपना लक्ष्य (निमित्त) बनाया, इसलिए उसे विकारी पर्याय (संसार)का पात्र होना पड़ा। यदि वह आकुलतारूप विकारी पर्यायसे मुक्ति पाना चाहता है तो उसका प्रधान कर्तव्य है कि वह भूतार्थरूपसे जीवादि नौ पदार्थों का स्वरूप जानकर पर द्रव्यको लक्ष्य बनानेके स्थानमें यदि अपने झायक स्वभाव आत्माको लक्ष्य बनाये तो नियमसे उसके विकारी पर्यायके स्थानमें अविकारी (स्वभाव) पर्यायकी उत्पत्ति होगी। भगवान् कुन्दकुन्द समयसारमें कहते हैं
सुद्धं तु विजाणंतो सुद्धं चेवप्पयं लहइ जीवो।
जाणतो दु असुद्धं असुद्धमेवप्पयं लहइ ।। जो सकल उपाधिसे रहित आत्माको अनुभवता है वह नियमसे शुद्ध आत्माको प्राप्त