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M कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ
कर्मोदय और जीवके राग-द्वेषरूप भावोंमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है, इसलिए कहा यह जाता है कि जीवके भाव कर्माधीन हैं। सो यह कथनमात्र ही है। यदि कदाचित् इसे कथनमात्र न मान कर यही मान लिया जाय कि संसारी जीवके भाव कर्माधीन ही हैं ता उसका मुक्तिके लिए प्रयत्न करना नहीं बन सकता। किन्तु ऐसा तो नहीं है, क्योंकि काललब्धिका योग मिलते ही जीवका मुक्तिके लिए प्रयत्न भी प्रारम्भ हो जाता है और वह उसमें सफल भी होता है। सो इससे विदित होता है कि प्रत्येक समयमें जीव अपनी शुभ, अशुभ या शुद्धरूप जो भी रिणति करता है उसके करने में वह स्वतन्त्र है। जीवकी इस स्वतन्त्रताका उद्घोष करते हुए आचार्य जयसेन प्रवचनसार गाथा ४५ की टीकामें लिखते हैं
द्रव्यमोहोदयेऽपि सति यदि शुद्धात्मभावनाबलेन भावमोहेन न परिणमति तदा बन्धो न भवति । यदि पुनः कर्मोदयमात्रेण बन्धो भवति तर्हि संसारिणां सर्वदेव कर्मोदयस्य विद्यमानत्वात् सर्वदेव बन्ध एव न मोक्ष इत्यभिप्रायः ।
द्रव्यमोहके उदयके भी रहने पर शुद्धात्मरूप भावनाके बलसे जीव यदि मोहम्प परिणत नहीं होता है तो उस समय बन्ध नहीं होता है। यदि कर्मोदयमात्रसे बन्ध होवे तो संसारी जीवोंके सदैव कर्मोदयके विद्यमान रहनेसे सदैव बन्ध ही होगा, मोक्ष नहीं होगा यह उक्त कथनका अभिप्राय है।
यह तो मुविदित है कि सातवें आदि गुणस्थान निर्विकल्प समाधिके हैं। वहाँ भय, मैथुन और परिग्रहसंज्ञाका सद्भाव नहीं बन सकता । फिर भी आगममें इन गुणस्थानोंमें यथा योग्य इन संज्ञाओंको स्वीकार किया है । इसलिए यह प्रश्न हुआ कि आगेके गुणस्थानों में ये संज्ञाएं कैसे बन सकती हैं ? तब आगममें यह उत्तर दिया गया है कि इनके निमित्त कारणरूप भय आदि काँकी उदय-उदीरणा आगे होती है, इसलिए कारणमें कार्यका उपचार करके ये संज्ञा सातवें आदि गुणस्थानों में स्वीकार की गई हैं। यथा
कारणभूदकम्मोदयसंभवादो उवयारेण भय-मेहुण-परिग्गहसण्णा अस्थि ।
यह आगमका अभिप्राय है। इससे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि जैसा कर्मका उदय हो, जीवको उससे उपयुक्त होना ही पड़े ऐसा एकान्त नियम नहीं है। जीव कर्मोदयसे उपयुक्त हो या न हो इसमें उसकी स्वतन्त्रता है। आचार्य जयसेनने उक्त वचन लिख कर इसमें सन्देह नहीं कि जीवकी इस स्वतन्त्रताका उद्घोष कर संसारी जीवके लिए मोक्षका द्वार खोल दिया है।
इस प्रकार जीव और कर्मके संयोगका क्या नात्पर्य है इसका संक्षेपमें यहाँ खुलासा किया ।
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