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________________ - METARE है कि जब जैसा निमित्त मिलता है कार्य उसके अनुसार होता है यह आगमानुकूल नहीं है। निमित्त बलात् पर कार्यके उपादानमें कार्यको उत्पन्न करता हो ऐसा त्रिकालमें नहीं है। प्रत्येक द्रव्य स्वभावसे परिणमनशील है और उसका वह प्रत्येक परिमणन अपने-अपने उपादानके अनुसार होता है, क्योंकि प्रत्येक कार्यकी अन्तर्व्याप्ति अपने-अपने उपादानके साथ पाई जाती है । निमित्तके साथ कार्यकी बाह्य व्याप्तिका नियम अवश्य है । पर जिस प्रकार एक उपादानके साथ एक कार्यकी अन्तर्व्याप्तिका नियम है उस प्रकार एक निमित्तके साथ एक कार्यकी बाह्य व्याप्तिका नियम नहीं है, इसलिए आगममें निमित्तको मुख्य कारण न स्वीकार कर उपचरित कारण कहा है । निमित्तको उपचरित कारण कहने का तात्पर्य यह है कि निमित्त कार्यका न मुख्य यथार्थ कर्ता है और न मुख्य (यथार्थ) करण है आदि । द्रव्यसंग्रहमें आचार्य नेमिचन्द्रने व्यवहाग्नयसे जीवको पुद्गलकर्मादिकका, अशुद्ध निश्चय नयसे रागादि परिणामोंका तथा शुद्ध निश्चयनयसे शुद्ध परिणामोंका कर्ता कहा है । अब यहाँ थोड़ी देरको अशुद्ध-शुद्ध निश्चयनयके भेदको गौणकर विचार कीजिए-जीव एक है और कार्य दो हैं-एक पुगलोंका कर्मपरिणामरूप कार्य और दूसग अपने परिणामोंको उत्पन्न करनेरूप कार्य । अब यदि जिम रूपसे वह अपने परिणामोंको उत्पन्न करता है उसी रूपसे वह कर्मों को उत्पन्न करता है मा माना जाय तो अपने कार्यका कर्ता निश्चयनयसे कहलावे और कर्मका कर्ता व्यवहारनयसे कलावे ऐसा भेद क्यों ? जब कि दोगेको मम नरू से करनेवाला एक जीव ही है तो दोनोंका कता भी एकरूपसे ही माना जाना चाहिए। फिर यह भेद क्यों ? यदि कहो कि एक ही जीव एक जगह निमित्त है और दूसरी जगह उपादान है यह जो भंद है उम भेदको दिखलाने के लिए ऐमा कथन किया गया है तो हम पूछते हैं कि तो फिर जिसरूपसे पुद्गल कर्मों का कर्ता है उसीरूपसे अपने परिणामोंका कर्ता है यह कथन कहाँ रहा । दोनों स्थलों पर जब कतृत्वमें अन्तर हे नो वह अन्तर क्या है इसे जानना चाहिए और दामोंको एक समान माननेकी आदत छोड़ देनी चाहिए । यदि कहो कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका उपादान कर्ता नहीं होता ऐसा तो हम मानते हैं पर निमित्त कर्ता तो होता है और इस प्रकार निमित्त कर्ता तथा उपादान कर्ता मिलकर एक कार्यको करते हैं । श्री समयसारजीमें निमित्त उपादान होकर कार्य नहीं करता यह तो कहा है पर निमित्त कर्ताका कहीं भी निषेध नहीं किया । यदि निमित्त कर्ताका निषेध किया होता तो हम भी मान लेते कि कार्य उपादानसे होता है, निमित्त वहाँ अपना कार्य करता हुआ उस द्वारा निमित्त व्यवहारको प्राप्त होता है, किन्तु जब कि समयसारमें भी कार्यमें निमित्त के व्यापारको (२७८-२७९) स्वीकार किया है ऐसी अवस्थामें प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति दोनोंके व्यापारसे माननी चाहिए । कार्य में निमित्तकी मात्र स्वीकृति मानना शाखसंगत नहीं है । सो इसका समाधान यह है कि यद्यपि शास्त्रोंमें निमित्तको कर्ता आदि भी कहा है और निमित्तसे - KART 1 C
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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