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________________ Jी कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ कार्य होता है ऐसा भी कहा है इसमें सन्देह नहीं, पर उसका आशय क्या है इसे यदि न समझा जाय तो एक निमित्तकर्ता और दूसरा उपादानकर्ता ये दोनों मिलकर एक कार्यको उत्पन्न करते हैं यह जो आजकल भ्रम हो रहा है वह दूर न होगा । यह प्रश्न आचार्य श्रीअमृतचन्द्र के सामने भी रहा है, इसलिए उसका समाधान करते हुए वे समयसारकलशमें लिखते हैं रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वदृष्टया नान्यद् द्रव्य वीक्ष्यते किञ्चनापि । सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यन्तं स्वस्वभावेन यस्मात् ॥२१९॥ तत्त्वदृष्टिसे देखो तो राग-द्वेषका उत्पन्न करनेवाला अन्य द्रव्य कुछ भी नहीं दीखता, क्योंकि सब द्रव्योंकी उत्पत्ति अपने स्वभावसे ही भीतर अत्यन्त प्रगटरूप शोभित होती है । प्रकृतमें एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका यथार्थ कर्ता नहीं यह साध्य है और प्रत्येक कार्यकी उत्पत्ति उपादानके स्वभावरूपसे होती है यह साधन है। इस द्वारा निमित्त यथार्थ कर्ता नहीं इसकी सिद्धि करके फलितार्थरूपमें उपादान ही यथार्थ कर्ता है इसकी सिद्धि की गई है। आत्मा पुद्गल कर्मादिकका यथार्थ कर्ता न हो कर उपचरित कर्ता है इस विषयको स्पष्ट करते हुए बृहद्रव्यसंग्रह में 'पुग्गलकम्मादीणं कत्ता' इत्यादि गाथा व्याख्यानके प्रसंगसे लिखा है मनोवचनकायव्यापारक्रियारहितनिजशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन्ननुपचरितासद्भूतव्यवहारेण ज्ञानावरणाद्यष्टकर्मणां आदिशब्देनौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरहारादिषट्पर्याप्तियोग्यपुद्गलपिण्डरूपनोकर्मणां तथैवोपचरितासद्भूतव्यवहोरण बहिर्विषयघटपटादीनां च कर्ता भवति । ___ मन, वचन और कायके व्यापारसे होनेवाली क्रियासे रहित ऐसा जो निज शुद्धात्मतत्त्व उसकी भावनासे रहित हुआ यह जीव अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो का, आदि शब्दसे औदारिक, वैक्रियिक और आहारकरूप तीन शरीरोंका तथा आहार आदि छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलपिण्डरूप नोकर्मों का तथा उपचरित असद्भूत व्यवहारनयकी अपेक्षा बाह्य विषय घट-पट आदिका कर्ता होता है। यहाँ जीवको कर्म-नोकर्मका कर्ता कहने में अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय स्वीकार किया गया है और घट-पटादिका कर्ता कहनेमें उपचरितासद्भूतव्यवहारनयको स्वीकार किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि पुद्गल द्रव्य, उसकी परिणामलक्षण किया और उससे उत्पन्न हुए कर्म-नोकर्मरूप कार्योसे जीव द्रव्य पृथक् है, उसकी परिणामलक्षण क्रिया भी पृथक् है, उससे उत्पन्न हुआ रागादि परिणाम भी पृथक् है । इसीप्रकार जीवद्रव्य, उसकी परिणामलक्षण क्रिया और उसके रागादि परिणामरूप कार्यसे पुद्गलद्रव्य, उसकी परिणामलक्षण किया और उसके कर्म नोकर्म आदिरूप कार्यका पृथक् जान लेना चाहिए। फिर भी इनमें एक-दूसरेके नाभयसे कर्ता-कर्मका व्यवहार किया जाता है, इसलिए ऐसे व्यवहारको असद्भूत व्यवहार ALoLTE
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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