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________________ - कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथम wokarm-ram- -Ranilavacancy यह निमित्तकी अपेक्षा कारणका विचार है । अन्तरंग कारणकी अपेक्षा विचार करने पर सर्वत्र पर्यायशक्तियुक्त द्रव्यशक्ति ही कार्यकी नियामक है बहिरंग कारण नहीं, क्योंकि एक ही प्रकारके बहिरंग कारणरूप सूक्ष्म लोभके सद्भावमें वेदनीयका बारह मुहूर्त, नाम-गोत्रका अंतर्मुहूर्त और शेष कर्मों का अन्त मुहूर्त जघन्य स्थितिबन्ध होता है। या एक ही संक्लेशरूप उत्कृष्ट कषाय के सद्भावमें मिथ्यादृष्टि संज्ञी पञ्चेन्द्रियके दर्शनमोहनीयका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और धारिन्नमोहनीयका चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है। इसीप्रकार एक ही योगके सद्भावमें बेदनीयका सबसे अधिक और शेषका अपने अपने स्थितिबन्धके अनुसार उत्तरोत्तर हीन प्रदेशबन्ध होता है। ऐसा क्यों होता है । इसका कोई अन्तरंग कारण अवश्य होना चाहिए, क्योंकि जितने भी कार्य होते हैं वे अपने अपने कारणका अनुविधान अवश्य करते हैं। स्पष्ट है कि बहिरंग कारणके एक होने पर भी कार्यों में जो यह विशेषता उत्पन्न होती है उसका मुख्य हेतु उस उस कार्यका अन्तरंग कारण ही है, क्योंकि जिसप्रकार एक बहिरंग कारणके रहने पर युगपत् अनेक कार्यों की उत्पत्ति देखी जाती है उस प्रकार एक अन्तरंग कारणसे युगपत् अनेक कार्यों की उत्पत्ति नहीं देखी जाती। कारण कि प्रत्येक उपादान कारण नियत कार्यका ही जनक होता है । अतएव कार्यकी उत्पत्तिका यथार्थ कारण उपादान ही है निमित्त नहीं यह सिद्ध होता है। तथापि विवक्षित कार्यकी उत्पत्तिके समय अन्य एक या अनेक जिन द्रव्योंकी विवक्षित पर्यायोंके साथ उसकी बाह्य व्याप्ति होती है उन्हें भी उस कार्यका कारण कहनेको लोकपरिपाटी है, क्योंकि अन्य द्रव्योंकी उस प्रकारकी पर्याचोंके साथ बाह्यच्याप्ति होने के कारण उससे विवक्षित कार्यकी सिद्धि होनेका नियम है। इस लिए उन्हें भी निमित्त मानकर उस कार्यका कर्ता आदि कहा जाता है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए पण्डितप्रवर आशाधर जी अनगारधर्मामृतमे लिखते हैं कर्नाद्या वस्तुनो भिन्ना येन निश्चयसिद्धये । साध्यन्ते व्यवह रोऽसौ निश्चयस्तदभेददक् ॥१-१२.९।। जिसके द्वारा निश्चय कारककी सिद्धि के लिए वस्तु (उपादान) से भिन्न कर्ता आदि माधे जाते हैं यह व्यवहार है और जो वस्तु (उपादान) से अभिन्न कतो आदिको अवलोकता है वह निश्चय है ॥१-१२०॥ श्रीमद्भट्टाकलंकदेवने लघीयस्त्रयके नय-तदाभास अधिकारके श्लोक ६में कारणकी सत्तासे कार्यकी सत्ता है यह स्वीकार किया है । इसकी टीका करते हुए श्री अभयचन्द्रसूरि उपादानको विवक्षित कार्यका जनक बतलाते हुए लिखते हैं कया स्वयं कारणसत्तया स्वयं कारणं विवक्षितकार्यजनक द्रव्यस्वरूपमुपादानं तस्य ससया भावेन । उक्त वचनमें 'विवक्षित' पद ध्यान देने योग्य है । कोई भी उपादान विवक्षित कार्यका ही जनक होता है यह इस पद द्वारा सूचित किया गया है । इसलिए. जिनकी यह मान्यता न -
SR No.011511
Book TitleKanjiswami Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year1964
Total Pages195
LanguageGujarati
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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