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________________ ज्ञानार्णवः । ३३९ अर्थ-फिर कैसा है श्रुतज्ञान कि द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नय और सद्भूत, असद्भूत व्यवहारादिक उपनयोंके संपातसे तो गहन है तथा गणधरादिको करके तुति करने योग्य है तथा विचित्र कहिये चित्रोंसे रहित है तथापि चित्र कहिये अनेक प्रकारके अर्थोसे भरा हुआ है-तथा समस्त लोकको दिखानेके लिये नेत्रके समान है ।। १२ ।। अनेकपदविन्यासैरङ्गपूः प्रकीर्णकैः। प्रमृतं यदिभात्युचै रत्नाकर इवापरः ॥ १३ ॥ अर्थ-फिर कैसा है श्रुतज्ञान कि-अनेक पदोंका विन्यास (स्थान ) है जिनमें ऐसे आचारादि अंग तथा अग्रायणी आदि पूर्व और सामायिकादि प्रकीर्णकोंसे विस्तार रूप है. सो यह श्रुतज्ञान जिसप्रकार रत्नाकर (समुद्र ) शोभता है उसी प्रकार शोभता है ।। १३ ॥ मदमत्तोद्धतक्षुद्रशासनाशीविपान्तकम् । दुरन्तघनमिथ्यात्वध्वान्तधर्माशुमण्डलम् ॥ १४ ॥ अर्थ-फिर कैसा है श्रुतज्ञान कि-मदसे माते, उद्धत, क्षुद्र (नीच) सर्वथा एकान्तवादियोंका शासन (मत ) रूपी आशीविष कहिये सर्पका अन्तक है अर्थात् नष्ट करनेवाला है तथा दुरन्त कहिये जिसका अन्त बहुत दूर है, ऐसे दृढ मिथ्यात्वरूपी अन्धकारके दूर करनेको सूर्यमंडलकी समान है ॥ १४ ॥ यत्पवित्रं जगत्यस्मिन्विशुद्ध्यति जगत्रयी। येन तद्धि सतां सेव्यं श्रुतज्ञानं चतुर्विधम् ॥ १५॥ अर्थ-फिर कैसा है यह श्रुतज्ञान कि इस जगतमें पवित्र है, क्योंकि, जिसके द्वारा ये तीनों जगत् पवित्र होते हैं। इसी कारण ही यह श्रुतज्ञान सत्पुरुपोंके सेवने योग्य है । यह श्रुतज्ञान प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग भेदसे चार प्रकारका है ।। १५ ॥ स्थित्युत्पत्तिव्ययोपेतं तृतीयं योगिलोचनम्।। नयदयसमावेशात्सायनादि व्यवस्थितम् ॥ १६ ॥ अर्थ-फिर कैसा है श्रुतज्ञान-उत्पाद, व्यय, प्रौव्य करके संयुक्त है. तथा योगीश्वरोंका तीसरा नेत्र है तथा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयोंके कारण सादि अनादि व्यवस्था रूप है. द्रव्यनयसे संतानकी अपेक्षा अनादि है और पर्यायनयकी . अपेक्षा तीर्थंकरोंकी दिव्य ध्वनिसे प्रगट होता है इस कारण सादि है ॥ १६ ॥ निशेपनयनिक्षेपनिकषग्रावसन्निभम् । स्यादादपविनिर्घातभग्नान्यमतभूधरम् ॥ १७ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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