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________________ ज्ञानार्णवः। ३२५ निर्विकल्पं मनस्तत्त्वं न विकल्पैरभिद्रुतम् । . निर्विकल्पमतः कार्य सम्यक्तत्त्वस्य सिद्धये ॥५०॥ अर्थ-निर्विकल्प मन तो तत्त्वस्वरूप है और जो मन विकल्पोंसे पीड़ित है वह तत्त्वस्वरूप नहीं है। इसकारण सम्यक्प्रकार तत्त्वकी सिद्धिके लिये मनको विकल्परहित करना. यह उपदेश है ॥ ५० ॥ अज्ञानविष्ठतं चेतः खतत्त्वादपवर्तते । विज्ञानवासितं तद्धि पश्यत्यन्तः पुरः प्रभुम् ॥ ५१ ॥ अर्थ-जो मन अज्ञानसे बिगड़ा हुआ है (पीडित है) वह तो निजस्वरूपसे छूट जाता है और जो मन विज्ञान कहिये सम्यग्ज्ञानसे वासित हे वह अपने अन्तरंगमें प्रभु भगवान् परमात्माको देखता है, यह विधि है. इसकारण अज्ञानको दूर करना चाहिये ।। ५१ ॥ मुनेर्यदि मनो मोहाद्रागाद्यैरभिभूयते । तन्नियोज्यात्मनस्तत्त्वे तान्येव क्षिप्यते क्षणात् ॥५२॥ अर्थ--मुनिका मन यदि मोहके उदयसे रागादिकसे पीड़ित हो तो मुनि उस मनको आत्मस्वरूपमें लगाकर, उन रागादिकोंको क्षणमात्रमें क्षेपण करता है अर्थात् दूर करता है ॥ ५२ ॥ यत्राज्ञात्मा रतः काये तस्मादयावर्तितो धिया। चिदानन्दमये रूपे योजितः प्रीतिमुत्सृजेत् ॥ ५३ ॥ अर्थ-जिस कायमें अज्ञानी आत्मा रत ( रागी) हुआ है उस कायसे बुद्धिपूर्वक भिन्न किये हुए चिदानंद स्वरूपमें लगाया हुआ मन उस कायमें प्रीति छोड़ देता है ॥५३॥ खविभ्रमोद्भवं दुःखं खज्ञानेनैव हीयते। तपसापि न तच्छेद्यमात्मविज्ञानवर्जितैः ॥ ५४॥ अर्थ-अपने विनमसे उत्पन्न हुआ दुःख अपनेही ज्ञानसे दूर होता है और जो आत्माके विज्ञानसे रहित पुरुष हैं वे तपके द्वारा भी उस दुःखको दूर नहीं कर सकते। भावार्थ-आत्मज्ञानके विना केवल तप करने मात्रसे दुःख नहीं मिटता ॥ ५४ ॥ रूपायुर्वलवित्तादि-सम्पत्ति स्वस्य वाञ्छति । पहिरात्माथ विज्ञानी साक्षात्तेभ्योऽपि विच्युतिम् ॥ ५५ ॥. अर्थ-जो बहिरात्मा है वह तो अपने लिये सुंदररूप, आयु, बल, धन इत्यादिक चाहता है और जो भेद विज्ञानी पुरुष है वह अपनेमें, रूपादिक विद्यमान हों उनसे भी विच्युति कहिये छूटना चाहता है ।। ५५ ।। १'सम्यक्तत्त्वप्रसिद्धये' इत्यपि पाठः ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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