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________________ ३२६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् कृत्वाहमतिमन्यत्र बध्नाति खं खतश्युतः । आत्मन्यात्ममतिं कृत्वा तस्माद् ज्ञानी विमुच्यते ।। ५६ ॥ - अर्थ-अपने आत्मस्वभावसे च्युत हुआ वहिरात्मा अन्य पदार्थों में अहंवुद्धि * करके अपने आपको बांधता है अर्थात् कर्मबन्ध करता है और · ज्ञानी पुरुप आत्मामें ही आत्मबुद्धि करके उस पर पदार्थसे छूट जाता है । ५६ ॥ . आत्मानं वेत्यविज्ञानी त्रिलिङ्गी संगतं वपुः । सम्यग्वेदी पुनस्तत्त्वं लिङ्गसंगतिवर्जितम् ।। ५७॥ अर्थ-भेदविज्ञानरहित बहिरात्मा तीन लिंगोंसे चिह्नित शरीरको आत्मा जानता है और सम्यग्ज्ञानी पुरुष आत्मतत्त्वको इन लिंगोंकी संगतिसे रहित जानता है ।। ५७ ॥ समभ्यस्तं सुविज्ञातं निर्णीतमपि तत्वतः। अनादिविभ्रमात्तत्त्वं प्रस्खलत्येव योगिनः ।। ५८ ।। अर्थ-फिर ऐसी भावना करता है कि योगी मुनिका तत्त्व कहिये आत्माका यथार्थ खरूप भलेप्रकार अभ्यास रूप किया (परमार्थसे निर्णय किया) हुआ भी अनादि विभ्रमके कारण डिग जाता है । भावार्थ-विभ्रमका संस्कार ऐसा तीव्र होता है कि जाना हुआ आत्मस्वरूप भी छूट जाता है। इस कारण ऐसा विचार करै कि _ अचिद्दश्यमिदं रूपं न चिद्दश्यं ततो वृथा। ___ मम रागादयोऽर्थेषु खरूपं संश्रयाम्यहम् ॥५१॥ अर्थ-यह रूप (मूर्ति) अचेतन है और दृश्य अर्थात् इन्द्रियग्राह्य है और यह चेतन दृश्य (इन्द्रियग्राह्य) नहीं है। इसकारण मेरे रूपादिक परपदार्थोंमें जो रागादिक हैं वे सब वृथा (निप्फल) हैं. मैं अपने स्वरूपको आश्रय करता हूं । इसप्रकार विचारैः ॥ ५९॥ करोत्यज्ञो ग्रहत्यागौ वहिरन्तस्तु तत्त्ववित् । शुद्धात्मा न बहिर्वान्तस्तौ विद्ध्यात्कथंचन ॥ ६ ॥ अर्थ-अज्ञानी बाह्य त्याग ग्रहण करता है और तत्त्वज्ञानी अन्तरंग त्याग ग्रहण करता है और जो शुद्धात्मा है सो वाह्य और अन्तरंगके दोनों ही त्याग ग्रहण नहीं करता है ॥ ६०॥ . वाकायाभ्यां पृथक् कृत्वा मनसात्मानमभ्यसेत् । वाक्तनुभ्यां प्रकुर्वीत कार्यमन्यन्न चेतसा ॥ ६१ ॥ - अर्थ-मुनि आत्माको वचन और कायसे भिन्न करके मनसे अभ्यास करै
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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