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________________ ३२४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सुसंवृतेन्द्रियग्रामे प्रसन्ने चान्तरात्मनि । क्षणं स्फुरति यत्तत्त्वं तद्रूपं परमेष्टिनः ॥ ४४ ॥ अर्थ-भले प्रकार संवररूप किये हैं इन्द्रियोंके समूह जिसने और अंतरंगमें प्रसन्न (विशुद्ध परिणामखरूप) अन्तरात्माके होनेपर जो उस समय तत्त्वका स्फुरण होता है वही परमेष्ठीका रूप है । भावार्थ-शुद्ध नयके द्वारा क्षणमात्र भी अनुभव करनेपर जो शुद्धात्माका स्वरूप प्रतिभासता है वही परमेष्ठी अरहंतसिद्धका खरूप है ॥ १४ ॥ यः सिद्धात्मा परः सोऽहं योऽहं स परमेश्वरः । __ मदन्यो न मयोपास्यो मदन्येन न चाप्यहम् ॥ ४५ ॥ अर्थ-जो सिद्धका आत्मखरूप है वही परमात्मा परमेश्वरखरूप मैं हूं मेरे मुझसे अन्य कोई उपासना करने योग्य नहीं है तथा मुझसे अन्यकरके मैं उपासना करने योग्य । नहीं हूं इसप्रकार अद्वैतभावना करै ॥ ४५ ॥ आकृष्य गोचरव्याघ्रमुखादात्मानमात्मना। स्वस्मिन्नेव स्थिरीभूतश्चिदानन्दमये स्वयम् ॥ ४६॥ अर्थ-फिर इसप्रकार भावना करै कि मैं अपने आत्माको इन्द्रियोंके विषयरूपी व्याघ्रके मुखसे बैंचकर (काढ़कर), आत्माके द्वारा ही मैं चिदानन्दमय अपने आत्मामें स्थिररूप हुआ हूं. इसप्रकार चैतन्य और आनन्दरूप विषे लीन होवै ॥ १६ ॥ पृथगित्थं न मां वेत्ति यस्तनो-तविभ्रमः। कुर्वन्नपि तपस्तीनं न स मुच्येत बन्धनैः ॥४७॥ अर्थ-विभ्रमरहित जो मुनि पूर्वोक्तप्रकार आत्माको देहसे भिन्ननही जानता है वह तीव्र तप करता हुआ भी कर्मवन्धनसे नहीं छूटता ॥ १७ ॥ स्वपरान्तरविज्ञानसुधास्पन्दाभिनन्दितः। खिद्यते न तपः कुर्वन्नपि क्लेशैः शरीरजैः ॥४८॥ अर्थ-भेदविज्ञानी मुनि आत्मा और परके अन्तर्भेदी विज्ञानरूप अमृतके वेगसे आनन्दरूप होता व तप करता हुआ भी शरीरसे उत्पन्न हुए (खेद क्लेशादिसे) खिन्न नहीं होता है ॥ १८॥ रागादिमल बिश्लेषाद्यस्य चित्तं सुनिर्मलम् । सम्यक् स्वं स हि जानाति नान्यः केनापि हेतुना ।। ४९ ॥ ' अर्थ-जिस मुनिका चित्त रागादिक मलके भिन्न होनेसे भलेप्रकार निर्मल होगया हो वही मुनि सम्यक्प्रकार आत्माको (अपनेको) जानता है अन्य किसी हेतुसे नहीं जान सकता ॥ १९ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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