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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् प्राणायामसे क्या हानि होती है सो बताते हैं, प्राणस्यायमने पीडा तस्यां स्यादातसम्भवः । तेन प्रच्याव्यते नूनं ज्ञाततत्त्वोऽपि लक्षितः ॥९॥ अर्थ-प्राणायाममें प्राणोंका ( श्वासोच्छासरूप पवनका) आयमन कहिये रोकनेसे (संकोचनेमें) पीडा होती है और उस पीड़ाके होते हुये आर्तध्यान उत्पन्न होता है और उस आर्तध्यानसे तत्त्वज्ञानी मुनि भी अपने लक्ष्यसे (अपने समाधि खरूप शुद्धभावोंसे) छुड़ाया जाता है । भावार्थ-आर्तध्यान समाधिसे भ्रष्ट करा देता है ।। ९ ॥ पूरणे कुम्भके चैव तथा श्वसननिर्गमे। व्यग्रीभवन्ति चेतांसि क्लिश्यमानानि वायुभिः ॥१०॥ . अर्थ-पवनके (श्वासोच्छासके ) पूरक करने तथा कुंभक करने तथा पवनके रेचक होनेमें चित्त व्यग्ररूप होता है ( खेदखिन्न होता है) क्योंकि पवनसे क्लेशित होनेसे खेद पाता है. इसकारण प्राणायामका यल गौण किया है ॥ १० ॥ - नातिरिक्त फलं सूत्रे प्राणायामात्प्रकीर्तितम् । ___ अतस्तदर्थमस्माभिनातिरिक्तः कृतः श्रमः ॥ ११॥ . अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि इस प्राणायामसे सिद्धांतमें कुछ भी अधिक फल नहीं कहा है इसकारण इस प्राणायामके लिये हमने अधिक खेद नहीं किया है ॥११॥ क्या करना चाहिये सो कहते हैं, निरुद्ध्य करणग्राम समत्वभवलम्व्य च। ललाटदेशसंलीनं विद्ध्यान्निश्चलं मनः ॥ १२ ॥ अर्थ-इन्द्रियोंके विषयोंको रोककर और रागद्वेपको दूर कर समता अवलंबन करके अपने मनको ललाटदेशमें संलीन करना चाहिये. इसप्रकार करनेसे समाधिकी सिद्धि होती है ॥ १२ ॥ अब ध्यानके स्थान ललाटके सिवाय अन्य भी कहते हैं. उनमें अपने मनको थामना कहते हैं, मन्दाक्रान्ता। नेत्रबन्धे श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे वके नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते । ध्यानस्थानान्यमलमतिभिः कीर्तितान्यत्र देहे तेष्वेकस्मिन्विगतविषयं चित्तमालम्बनीयम् ॥ १३ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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