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________________ ज्ञानार्णवः । ३०७ अर्थ - निर्मलबुद्धि आचार्योंने ध्यान करनेके लिये नेत्रयुगल, दोनों कान, नासिकाका अग्रभाग, ललाट, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु, दोनों भौहोंका मध्यभाग इन दश स्थानोंमेंसे किसी एक स्थानमें अपने मनको विपयोंसे रहित करके आलंबित करना अर्थात्, इन स्थानोंमेंसे किसी एक स्थानपर ठहराकर ध्यानमें लीन करना कहा है ॥ १३ ॥ स्थानेष्वेतेषु विश्रान्तमुनेर्लक्ष्यं वितन्वतः । उत्पद्यन्ते स्वसंवित्तेर्बहवो ध्यानप्रत्ययाः ॥ १४ ॥ अर्थ - इन पूर्वोक्त स्थानोंमें विश्रामरूप ठहराये हुए लक्ष्यको ( चितवने योग्य ध्येय वस्तुको) विस्तारते हुए मुनिके स्वसंवेदनरूप ध्यानके कारण बहुत ही उत्पन्न होते हैं । भावार्थ - जिसका ध्यान किया चाहै उसकी ही सिद्धि होती है ॥ १४ ॥ इसप्रकार प्रत्याहारधारणाका वर्णन किया || दोहा | भाoआदि दश थान में, ध्येय धापि मन लार । प्रत्याहार जु धारणा, यह ध्यानविस्तार ॥ ३० ॥ इति श्रीशुभचन्द्राचार्यविरचिते योगप्रदीपाधिकारे ज्ञानार्णवे प्रत्याहारधारणावर्णनं नाग त्रिंशं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ३० ॥ अथैकत्रिंशं प्रकरणम् । आगे वीर्यसहित ध्यान करनेका वर्णन है, उसमेंसे प्रथम ही ध्यान करनेकी प्रतिज्ञा करनेका विधान कहते हैं, - अनन्तगुणराजीववन्धुरप्यत्र वञ्चितः । अहो भवमहाक्षे प्राहं कर्मवैरिभिः ॥ १ ॥ अर्थ - ध्यान करनेका उद्यमी प्रथम ही ऐसा विचार करे कि अहो देखो ! यह बड़ा खेद है जो मैं अनन्तगुण रूप कमलोंका बन्धु अर्थात् विकाश करनेवाले सूर्यसमान हूं तथापि इस संसाररूप वनमें कर्मरूप शत्रुओंके द्वारा पूर्वकालमें ठगा गया हूं ॥ १ ॥ स्वविभ्रमसमुद्भूते रागाद्यतुलवन्धनैः । बद्धो विडम्बितः कालमनन्तं जन्मदुर्गमे ॥ २ ॥ अर्थ - तत्पश्चात् फिर विचारै कि- मैंने अपने ही विभ्रमसे उत्पन्न हुए रागादिक अतुलबन्धनोंसे बँधे हुए अनन्तकाल पर्यन्त संसाररूप दुर्गम मार्ग में विडंबना रूप होकर विपरीताचरण किया ॥ २ ॥ 1
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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