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________________ ज्ञानार्णवः। । ३०५ 'अर्थ-वशी मुनि विषयोंसे तो इन्द्रियोंको पृथक् करै और इन्द्रियोंसे मनको पृथक्क् कर तथा अपने मनको निराकुल करके अपने ललाटपर निश्चलतापूर्वक धारण करै, यह विधि प्रत्याहारमें कही गई है ॥ ३॥ सम्यक्समाधिसिद्ध्यर्थं प्रत्याहारः प्रशस्यते । प्राणायामेन विक्षितं मनः स्वास्थ्यं न विन्दति ॥ ४॥ अर्थ-पूर्वोक्त प्राणायाममें पवनके साधनसे विक्षिप्त (क्षोभरूप) हुआ मन खास्थ्यको नहीं प्राप्त होता इसकारण भलेप्रकार समाधिकी सिद्धि के लिये प्रत्याहार करना प्रशस्त है अर्थात् प्रशंसा किया जाता है। भावार्थ-इस प्रत्याहारके द्वारा मन ठहरानेसे समाधिकी सिद्धि होती है ॥ ४ ॥ प्रत्याहृतं पुनः स्वस्थं सर्वोपाधिविवर्जितम् । चेतः समत्वमापन्नं खस्मिन्नेव लयं ब्रजेत् ॥५॥ अर्थ-प्रत्याहारसे ठहराहुआ मन समस्त उपाधि अर्थात् रागादिकरूप विकल्पोंसे रहित समभावको प्राप्त होकर आत्मामें ही लयको प्राप्त होता है ।। ५ ।। वायोः संचारचातुर्यमणिमाघनसाधनम् । प्रायः मत्यूहबीजं स्यान्मुनेमुक्तिमभीप्सतः ॥ ६ ॥ अर्थ-पपनसंचारका चातुर्य शरीरको सूक्ष्म स्थूलादि करनेरूप अंगका साधन है इसकारण मुक्तिकी वांछा करनेवाले मुनिक प्रायः विघ्नका कारण है । भावार्थ-मोक्षके साधनमें विन करनेवाला है ॥ ६॥ किमनेन प्रपञ्चेन खसन्देहातहेतुना। सुविचार्यव तज्ज्ञेयं यन्मुक्त:जमनिमम् ।। ७ ।। अर्थ-इस पवनसंचारकी चतुराईके प्रपंचसे क्या लाभ क्योंकि यह आत्मामें सन्देह और पीडाका (आर्तध्यानका) कारण है ऐसे भलेप्रकार विचार करके मुक्तिका प्रधान कारण होय सो जानना चाहिये ॥ ७॥ संविग्नस्य प्रशान्तस्य वीतरागस्य योगिनः । वशीकृताक्षवर्गस्य प्राणायामो न शस्यते ॥ ८ ॥ अर्थ-जो मुनि संसारदेहभोगोंसे विरक्त है, कपाय जिसके मन्द हैं, विशुद्धभावयुक्त है, वीतराग है और जितेन्द्रिय है ऐसे योगीको प्राणायाम प्रशंसा करने योग्य नहीं हैं।॥ ८॥ १'जन्मना' इत्यपि पाठः।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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