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ज्ञानार्णवः ।
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अर्थ - क्षीण होगया है मोह जिसका और शान्त होगया है कलुप कपायरूप मैल जिसका ऐसे समभावोंमें आरूढ हुए योगीश्वरको आश्रय करके हरिणी तो सिंहके चालको अपने पुत्रकी बुद्धिसे स्पर्श करती वा प्यार करती है और गऊ है सो व्याघ्रके ant पुत्रकी बुद्धिसे प्यार करती है, मार्जारी हंसके बच्चेको स्नेहकी दृष्टिसे वशीभूत हो स्पर्शती है तथा मयूरनी सर्पके बच्चको प्यार करती है. इसी प्रकार अन्य प्राणी भी जन्मसे जो वैर है उसको मदरहित हो छोड देते हैं । यह साम्यभाव का ही प्रभाव है ॥ २६ ॥
मन्दाक्रान्ता ।
एकः पूजां रचयति नरः पारिजातप्रसुनैः
क्रुद्धः कण्ठे क्षिपति भुजगं हन्तुकामस्ततोऽन्यः । तुल्या वृत्तिर्भवति च तयोर्यस्य नित्यं स योगी साम्यरामं विशति परमज्ञानदत्तावकाशम् || २७ ॥ अर्थ - जिस मुनिकी ऐसी वृत्ति हो कि कोई तो नम्रीभूत होकर पारिजातके पुष्पोंसे पूजा करता है और कोई मनुष्य क्रुद्ध होकर मारनेकी इच्छासे गलेमें सर्पकी माला पहराता है; इन दोनोंमें ही जिसकी सदा रागद्वेपरहित समभावरूपवृत्ति हो, वही योगीश्वर समभावरूपी आराम में ( क्रीड़ावनमें) प्रवेश करता है और ऐसे समभावरूप strar ही. केवल ज्ञान के प्रकाश होनेका अवकाश है ॥ २७ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् ।
नोऽरण्यान्नगरं न मित्रमहिताल्लोष्टान्न जाम्बूनदं
न खग्दाम भुजङ्गमान्न दृपदस्तल्पं शशाङ्कोज्वलम् । यस्यान्तःकरणे विभर्ति कलया नोत्कृष्टतामीपद
प्यार्यास्तं परमोपशान्तपदवी भारूढसाचक्षते ॥ २८ ॥
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अर्थ — जिस मुनिके मनमें वनसे नगर, शत्रुसे मित्र, लोष्टसे कांचन (सुवर्ण), रस्सी व सर्पसे पुष्पमाला, पापाणशिलासे चन्द्रमासमान उज्वल शय्या, इत्यादिक पदार्थ अन्तःकरणकी कल्पनासे किंचिन्मात्र भी उत्कृष्ट नहीं दीखते उस मुनिको आर्य सत्पुरुष परम उपशान्तरूप पदवीको प्राप्त हुआ कहते हैं । भावार्थ - वनादिकसे नगरादिकमें कुछ भी उत्तमता नहीं माने वही मुनि रागद्वेषरहित साम्यभावयुक्त है ॥ २८ ॥
स्रग्धरा ।
सौधोत्सङ्गे स्मशाने स्तुतिशपनविधी कर्दमे कुङ्कुमे वा पल्य कण्टकाग्रे दृपदि शशिमणी चर्मचीनांशुकेषु । शीर्णा दिव्यनार्यामसमशमवशाद्यत्य चित्तं विकल्पैर्नालीढं सोऽयमेकः कलयति कुशलः साम्यलीलाचिलासम्॥२९॥