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________________ २५२ रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् अर्थ - जिस मुनिका चित्त महलोंके शिखरमें, और स्मशानमें तथा स्तुति और निंदाके विधान में, कीचड़, और केशरमें, पल्यंकशय्या और कांटोंके अग्रभाग में पाषाण और चन्द्रकान्त मणिमें, चर्म और चीनदेशीय रेशमके वस्त्रोंमें, और क्षीणशरीर व सुंदर स्त्री अतुल्य शान्तभाव के प्रभावसे विकल्पोंसे स्पर्शित न हो, वही एक प्रवीण मुनि समभावकी लीलाके विलासको अनुभव करता है अर्थात् वास्तविक समभाव ऐसे मुनिके ही जानना ॥ २९ ॥ चलत्यचलमालेयं कदाचिदैवयोगतः । नोपस गैरपि वान्तं मुनेः साम्यप्रतिष्ठितम् ॥ ३० ॥ अर्थ - यह प्रत्यक्ष अचल पर्वतोंकी श्रेणी कदाचित् चलायमान भी हो जाय तो आचर्य नहीं किन्तु साम्यभावमें प्रतिष्ठित मुनिका चित्त उपसर्गों से कदापि नहीं चलता ऐसा लीन हो जाता है ॥ ३० ॥ ३१ ॥ उन्मत्तमथ विभ्रान्तं दिग्मूढं सुप्तमेव वा । साम्यस्थस्य जगत्सर्वं योगिनः प्रतिभासते ॥ अर्थ — साम्यभावमें स्थित मुनिको यह जगत् ऐसा भासता है उन्मत्त है वा विभ्रमरूप है अथवा दिशाभूला हुआ अथवा सोता है ॥ ३१ ॥ वाचस्पतिरपि ब्रूते यद्यजस्रं समाहितः । वक्तं तथापि शक्नोति न हि साम्यस्य वैभवम् ॥ ३२ ॥ अर्थ - इस साम्यके विभवको यदि वृहस्पति भी स्थिरचित्त होकर निरन्तर कहै तौ भी कहने को समर्थ नहीं होता ॥ ३२ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् । दुष्प्रज्ञाबललुप्तवस्तुनिचया विज्ञानशून्याशया कि मानों यह जगत् विद्यन्ते प्रतिमन्दिरं निजनिजखार्थेदिता देहिनः । आनन्दामृतसिन्धुशीकरचयैर्निर्वाप्य जन्मानलं ये मुक्तदनेन्दुवीक्षणपरास्ते सन्ति द्वित्रा यदि ॥ ३३ ॥ अर्थ — जिन्होंने अपनी दुर्बुद्धिके बलसे समस्त वस्तुके समूहका लोप कर दिया और जिनका चित्त विज्ञानसे शून्य है ऐसे पुरुष तो घर २ में विद्यमान हैं और अपने २ प्रयोजनको साधनेमें तत्पर हैं किन्तु जो समभावजनित आनंदामृतसमुद्रके जलकणोंके समूहसे संसाररूप अग्निको बुझाकर मुक्तिरूपी स्त्रीके वदनचन्द्रमाको देखनेमें' तत्पर हैं ऐसे महापुरुष यदि हैं तो दो वा तीन ही हैं । भावार्थ - इस निकृष्ट पंचम कालमें १ मूल पुस्तक में यह श्लोक अगले अध्यायकी आदिमें लिखा है ।
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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