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________________ २५० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् भवन्त्यतिप्रसन्नानि कश्मलान्यपि देहिनाम् । चेतांसि योगिसंसर्गेऽगस्त्ययोगे जलानिवत् ॥ २३ ॥ . अर्थ-जिस प्रकार शरद ऋतुमें अगस्त्य ताराके संसर्ग होनेसे जल निर्मल हो जाता हैं उसी प्रकार समतायुक्त योगीश्वरोंकी संगतिसे जीवोके मलिन चित्त भी प्रसन्न अर्थात निर्मल हो जाते हैं ॥ २३ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् । क्षुभ्यन्ति ग्रहयक्षकिन्नरनरास्तुष्यन्ति नाकेश्वराः मुञ्चन्ति द्विपदैत्यसिंहशरभव्यालादयः क्रूरताम् । रुग्वैरप्रतिवन्धविभ्रमभयभ्रष्टं जगजायते त्याद्योगीन्द्रसमत्वसाध्यमथवा किं किं न सद्यो भुवि ॥२४॥ अर्थ-समभावयुक्त योगीश्वरोंके प्रभावसे ग्रह यक्ष किन्नर मनुष्य ये क्षोभको प्राप्त होते हैं और नाकेश्वर अर्थात् इन्द्रगण हर्पित होते हैं । तथा हाथी दैत्य सिंह अष्टापद सर्प इत्यादि क्रूर प्राणी अपनी क्रूरताको छोड़ देते हैं. और यह जगत् रोग वैर प्रतिवन्ध विग्रम भयादिकले रहित हो जाता है । इस पृथिवीमें ऐसा कौनसा कार्य है, जो योगीश्वरोंके समभावोंसे साध्य न हो अर्थात् समताभावॉसे सर्व मनोवांछित सघते हैं ॥ २४ ॥ मन्दाक्रान्ता। चन्द्रः सान्द्रविकिरति सुधामंशुभिर्जीवलोके भाखानुप्रैः किरणपटलैरुच्छिनत्यन्धकारम् । धात्री धत्ते भुवनमखिलं विश्वमेतच वायु- यवत्सास्याच्छमयति तथा जन्तुजातं यतीन्द्रः ।। २५॥ अर्थ-जिस प्रकार चन्द्रमा जगतमें किरणोंसे सधन करता हुआ अमृत वर्षाता है और सूर्य तीव्र किरणोंके समूहसे अन्धकारका नाश करता है तथा पृथिवी समस्त भुवनोंको धारण करता है तथा पवन है सो इस समस्त लोकको धारण करता है उसी प्रकार मुनीश्वर महाराज भी साम्यभावोंसे जीवोंके समूहको शान्तभावरूप करते हैं ।। २५ ।। बग्घरा। · सारङ्गी सिंहशाचं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं मार्जारी हंसवालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजङ्गम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तयोऽन्ये त्यजन्ति मित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुपं योगिनं क्षीणमोहम् ॥ २६ ॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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