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________________ ज्ञानार्णवः । २२१ अर्थ-जो सुख वीतराग मुनिके प्रशमरूप (मंदकपायरूप) विशुद्धतापूर्वक है उसका अनन्तवां भाग भी इन्द्रको प्राप्त नहीं है ॥ ३ ॥ __ अनन्तबोधवीर्यादिनिर्मला गुणिभिर्गुणाः। स्वस्मिन्नेव स्वयं मृग्या अपास्य करणान्तरम् ॥४॥ अर्थ-अनन्त ज्ञान अनन्त वीर्यादि गुण गुणी पुरुषोंके द्वारा अपने आत्मामें ही अन्य इन्द्रियादिकी सहायताको छोड अपने आप ही खोजने चाहिये ॥ ४ ॥ अहो अनन्तवीर्योऽयमात्मा विश्वप्रकाशकः । त्रैलोक्यं चालयत्येव ध्यानशक्तिप्रभावतः ॥५॥ अर्थ-अहो देखो, यह आत्मा अनन्तवीर्यवान् है तथा समस्त वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाला है तथा ध्यानशक्तिके प्रभावसे तीनो लोकोंको भी चलायमान कर सकता है। भावार्थ-मुनि जब ध्यान करते हैं तब तीनो लोकोंके इन्द्रोंके आसन कम्पायमान होते हैं अथवा ध्यानके फलसे जो कोई जीव तीर्थंकरपद प्राप्त करता है उसका जन्म होनेके समय तीनों लोकोंमें क्षोभ होता है ॥ ५॥ अस्य वीर्यमहं मन्ये योगिनाप्यगोचरम् । यत्समाधिप्रयोगेण स्फुरत्यव्याहतं क्षणे ॥६॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि इस आत्माकी शक्तिको मैं ऐसा समझता हूं कि वह योगियोंके भी अगोचर है । क्योंकि समाधि ध्यान लय स्वरूपके प्रयोगोंसे क्षणमात्रमें अव्याहत प्रकाश होती है। भावार्थ-अनन्त पदार्थोके देखने जाननेकी शक्ति प्रगट होती है ॥ ६ ॥ अयमात्मा स्वयं साक्षात्परमात्मेति निश्चयः । विशुद्धध्याननिधूत-कमन्धनसमुत्करः ॥७॥ अर्थ-जिस समय विशुद्ध ध्यानके वलसे कर्मरूपी इन्धनोंको भस्म कर देता है उस समय यह आत्मा ही खयं साक्षात्परमात्मा हो जाता है, यह निश्चय है ॥ ७ ॥ ध्यानादेव गुणग्राममस्याशेषं स्फुटी भवेत् । क्षीयते च तथानादिसंभवा कर्मसन्ततिः ॥८॥ अर्थ-इस आत्माके गुणोंका समस्त समूह ध्यानसे ही प्रगट होता है तथा ध्यानसे ही अनादिकालकी संचित हुई कर्मसन्तति नष्ट होती है ।। ८ ॥ शिवोऽयं वैनतेयश्च स्मरश्चात्मैव कीर्तितः। अणिमादिगुणानय॑रत्नवाधिqधैर्मतः ॥ ९ ॥ अर्थ-विद्वानोंने इस आत्माको ही शिव, गरुड़ और काम कहा है । क्योंकि यह
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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