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________________ २२२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् आत्मा. ही अणिमा महिमादि अनर्घ्य (अमूल्य) गुणरूपी रोंका समुद्र है । भावार्थशिवतत्त्व, गरुडतत्त्व और कामतत्त्व जो अन्यमती ध्यानके लिये स्थापन करते हैं सो आचार्य महाराज कहते हैं कि यह आत्मा ही की चेष्टा है, आत्मासे भिन्न अन्य कोई पदार्थ नहीं है ॥ ९ ॥ उक्तं च ग्रन्थान्तरे। "आत्यन्तिकखभावोत्थानन्तज्ञानसुखः पुमान् । परमात्मा विपः कन्तुरहो माहात्म्यमात्मनः ॥ १॥ अर्थ-अहो! आत्माका महात्म्य कैसा है कि-आत्यन्तिक कहिये अन्तरहित अविनश्वर खभावसे उत्पन्न हुए अनन्तज्ञान अनन्तसुखवाला ऐसा परमात्मा स्वरूप शिव तथा गरुड और काम यह आत्मा ही है ॥ १॥ अब इन तीनों तत्त्वोंको आचार्य महाराज गद्यद्वारा स्पष्ट करते हैं ॥ १ ॥ यथान्तर्बहिर्भूतनिजनिजानन्दसन्दोहसंपाद्यमानद्रव्यादिचतुष्कसकलसामग्रीखभावप्रभावात्परिस्फुरितरत्नत्रयातिशयसमुल्लसितस्त्रशक्तिनिराकृतसकलतदावरणप्रादुर्भूतशुक्लध्यानानलबहुलज्वालाकलापकवलितगहनान्तरालादिसकलजीवप्रदेशघनघटितसंसारकारणज्ञानावरणादिद्रव्यभाववन्धनविश्लेषस्ततो युगपत्प्रादुर्भूतानन्तचतुष्टयो धनपटलविगमे सवितुःप्रतापप्रकाशाभिव्यक्तिवत् स खल्वयमात्मैव परमात्मव्यपदेशभाग्भवति ॥१०॥ ___ अर्थ—यथा-जैसी चाहिये वैसी, अन्तरंग और बहिर्भूत, तथा निज (अपनी) निजानन्दसन्दोह-(अपने आनन्द खरूप विशुद्धता सहित परिणामोंके समूहसे) संपाद्यमान-अर्थात् उत्पन्न की हुई वा प्राप्त की हुई द्रव्य क्षेत्रकालभावके चतुष्क खरूप समस्त सामग्रीरूप स्वभावके प्रभावसे प्रगट हुआ जो सम्यक् दर्शन-ज्ञान-चरित्ररूप रत्नत्रय उसके अतिशयसे (प्रकर्ष) उल्लासरूप हुई ( उदयरूप हुई) अपनी शक्तिसे निराकरण किया हुआ तदावरण-मोहकर्मका उदय, उससे प्रगट हुई शुक्लध्यानरूप अग्निकी ज्वालाके पृथक् वितर्क विचार आदि भेदरूप विशुद्धताके समूहसे ग्रासीभूत किये हैं सघन, और अन्तरालवर्ती अनादिकालके जीवके प्रदेशोमें समूहरूप ठहरे हुए संसारके कारणस्वरूप ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म भावकर्मके बंधनके विशेष जिसने ऐसा, तत्पश्चात् प्रगट हुआ है युगपत् (एकही कालमें) अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यरूप चतुष्टय जिसके ऐसा, जैसे मेघपटलोंके दूर होनेसे सूर्यका प्रताप और प्रकाश युगपत् (एक साथ) प्रकट होता है उसी प्रकार प्रगट हुआ आत्मा ही निश्चय करके परमात्माके व्यपदेशका (नामका) धारक होता है । भावार्थ-यह आत्मा संसार-अवस्थामें जीवात्मा कहाता
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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