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________________ रायचन्द्रनशास्त्रमालायांम् • निष्कपाय भये इन्द्री मन वशि हो तबै, __ध्यानयोग्य भाव जगे जोग थिर थावना ॥ अन्यमती यह रीति जान नाहीं जान ताके, सर्वथा एकान्त पक्ष एक रूप भावना। एकमे अनेक भाव नित्य वा अनित्य आदि, शुद्ध श्री अशुद्ध माने निजरूप पावना ॥ २१ ॥ इति शुभचन्द्राचार्यविरचिते श्रीनानाणवे योगप्रदीपाधिकारे अक्षविषयनिरोधो नाम विशं प्रकरणम् ॥ २० ॥ . अथ एकविंशं प्रकरणम् । आगे तीन तत्त्वोंके प्रकरणका प्रारंभ है, जिसका आशय यह है कि अन्यमती तीन तत्त्वोंकी कल्पना करके उनका ध्यान करते हैं और उस ध्यानसे सर्व सिद्धि होना कहते हैं, इसकारण उनका भ्रम दूर करनेके लिये आचार्य महाराज तीन तत्वोंके व्याख्यानद्वारा कहते हैं कि ये तत्त्व एक आत्माहीकी सामर्थ्यरूप हैं । यह आत्मा ध्यानके वलसे अचिन्त्य सामर्थ्यरूप हो चेष्टा करता है । इस आत्माके अतिरिक्त अन्य कल्पना है सो सव मिथ्या है। इस कारण आत्माका सामर्थ्य वर्णन करते हैं । अयमात्मा स्वयं साक्षाद्गुणरत्नमहार्णवः। सर्वज्ञः सर्वक सार्वः परमेष्टी निरचनः ॥१॥ अर्थ-यह आत्मा स्वयं साक्षात् गुणरूपी रलोका भरा हुआ समुद्र है तथा यही आत्मा सर्वज्ञ हैं, सर्वदी है, सबके हितरूप समस्त पदार्थोंमें व्याप्त है, परमेष्ठी (परमपदमें स्थित ) है और निरंजन है अर्थात् जिसके किसी प्रकारकी कालिमा नहीं है । शुद्ध नयका विषयभूत आत्मा ऐसा ही है ॥ १॥. तत्स्वरूपमजानानो जनोऽयं विधिवश्चितः । विषयेषु सुखं वेत्ति यत्स्यात्पाके विपान्नवत् ॥ २॥ अर्थ- उस आत्माके स्वरूपको नहीं जानता हुआ यह मनुष्य कर्मोसे वंचित हो इन्द्रियोंके विषयों में मुख जानता है सो बड़ी भूल है । क्योंकि, इन्द्रियोंका विषय विपा- . कसमयमें विपमिश्रित अन्नके समान होता है ॥ २॥ यत्सुखं वीतरागस्य मुनेः प्रशमपूर्वकम् । न तस्यानन्तभागोऽपि प्राप्यते त्रिदशेश्वरैः ॥३॥
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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