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________________ १८१ ज्ञानार्णवः। अर्थ-थोड़ेसे भी धनरूपी कीचड़ सैवाल में फंसा हुआ गुणवान् पुरुष भी इस जगतमें तत्काल लक्षावधि दोषोंसे कलंकित होता है । भावार्थ-थोड़ेसे भी धनसे कालिमा लगती है ॥ २९ ॥ संन्यस्तसर्वसंगेभ्यो गुरुभ्योऽप्यतिशक्यते । धनिभिर्धनरक्षार्थ रात्रावपि न सुप्यते ॥३०॥ अर्थ-धनाढ्य पुरुष समस्त परिग्रहके त्यागनेवाले अपने गुरुसे भी शंकायुक्त रहता है तथा धनकी रक्षाके लिये रात्रिको सोता भी नहीं। भावार्थ-कोई मेरा धन न ले जाय ऐसी शंका उसे निरन्तर रहती है ॥ ३०॥ सुतस्त्रजनभूपालदुष्टचौरारिविडरात्।। . बन्धुमिनकलनेभ्यो धनिभिः शङ्कयते भृशं ।। ३१ ।। अर्थ-जो धनवान होते हैं वे पुत्र, खजन, राजा, दुष्ट, चौर, वैरी, बन्धु, स्त्री, मित्र अथवा परचक्र आदिसे निरन्तर शंकित रहते हैं ।। ३१ ॥ कर्म बनाति यजीवो धनाशाकश्मलीकृतः।। तस्य शान्तियदि क्लेशाहहुभिर्जन्मकोटिभिः ॥ ३२॥ . अर्थ-यह जीव धनकी आशासे मलिन होकर जो कर्म वांधता है उस कर्मकी शान्ति बहुत ही करोड़ों जन्मसे और बड़े कष्टसे होती है. क्योंकि, एक जन्मका वांधा हुआ कर्म अनेक जन्मोंमें क्लेश भोगनेपर ही छूटता है ॥ ३२ ॥ सर्वसंगविनिर्मुक्तः संवृताक्षः स्थिराशयः। धत्ते ध्यानधुरां धीरः संयमी वीरवर्णितां ॥३३॥ अर्थ-समस्त परिग्रहोंसे तो रहित हो और इन्द्रियोंको संवररूप करनेवाला हो ऐसा स्थिरचित्त संयमी मुनि ही श्रीवर्धमान भगवानकी कही हुई ध्यानकी धुराको धारण करसकता है. क्योंकि ऐसा हुए विना ध्यानकी सिद्धि नहीं होती ॥ ३३ ॥ संगपङ्कात्समुत्तीर्णो नैराश्यमवलम्वते ॥ ततो नाक्रम्यते दुःखैः पारतत्र्यैः कचिन्मुनिः ॥ ३४॥ अर्थ-जो मुनि परिग्रहरूपी कर्दमसे निकल गया हो वही निराशताका (निस्पृहताका) अवलंबन कर सकता है. और उस निराशताके होनेपर वह मुनि परतन्त्र स्वरूप दुःखोंसे कदापि न नहीं घेरा वा दवाया जाता सो ठीक ही है, आशारहित होनेपर फिर पराधीनताका दुःख क्यों होय? ॥ ३४ ॥ . विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थितेऽपि वा। सर्वत्राप्रतिवद्ध: स्यात्संयमी संगवर्जितः ॥ ३५ ॥ .
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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