SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ —- जो परिग्रहरहित संयमी है वह चाहे तो निर्जन वनमें रहो, चाहे वसती में रहो, चाहे सुखसे रहो, चाहे दुःखसे रहो, उसको कहीं भी प्रतिवद्धता नहीं है, अर्थात् वह सब जगह सम्बन्धरहित निर्मोही रहता है ॥ ३५ ॥ दुःखमेव धनव्यालविषविध्वस्तचेतसां । अर्जने रक्षणे नाशे पुंसां तस्य परिक्षये ॥ ३६ ॥ अर्थ – धनरूपी सर्पके विषसे जिनका चित्त बिगड़ गया है उन पुरुषों कों धनोपार्जनमें, रक्षा करनेमें अथवा नाश होने वा व्यय (खर्च) करनेमें सदैव दुःख ही होता है ॥ ३६ ॥ खजातीयैरपि प्राणी सयोऽभियंते धनी । यथात्र सामिषः पक्षी पक्षिभिर्वमण्डलैः ॥ ३७ ॥ अर्थ – जिसप्रकार किसी पक्षीके पास मांसका खंड हो तो वह अन्यान्य मांसभक्षी पक्षियोंसे पीड़ित चा दुःखित किया जाता है, उसी प्रकार धनाढ्य पुरुष भी अपनी जातिवालोंसे दुःखित वा पीड़ित किया जाता है ॥ ३७ ॥ आरम्भो जन्तुघातश्च कषायाच परिग्रहात् । जायन्तेऽत्र ततः पातः प्राणिनां श्वभ्रसागरे ॥ ३८ ॥ अर्थ - जीवोंके परिग्रहसे इस लोकमें तौ आरंभ होता है, हिंसा होती है, और - कषाय होते हैं. उससे फिर नरकों में पतन होता है ॥ ३८ ॥ न स्याद्ध्यातुं प्रवृत्तस्य चेतः स्वप्नेऽपि निश्चलं । मुनेः परिग्रहग्राहैर्भिद्यमानमनेकधा ॥ ३९ ॥ अर्थ - जिस मुनिका चित्त परिग्रहरूपी पिशाचोंसे अनेक प्रकार पीडित है उसका चित्त ध्यान करते समय कदापि खझमें भी स्थिर (निश्चल) नहीं रह सकता ॥ ३९ ॥ मालिनी । सकलविषयबीजं सर्वसावद्यमूलं नरकनगरकेतुं वित्तजातं विहाय । अनुसर मुनिवृन्दानन्द सन्तोषराज्य मभिलषसि यदि त्वं जन्मबन्धव्यपायम् ॥ ४० ॥ अर्थ — अब आचार्य महाराज उपदेश करते हैं कि हे आत्मन् ! यदि तू संसारके बंधका नाश करना चाहता है तो धनके समूहको छोड़कर मुनियोंके समूहको आनंद देनेवाले सन्तोषरूपी राज्यको अंगीकार कर । क्योंकि, धनका समूह समस्त इन्द्रियोंके विषयका (१ 'अभिभूयते' इत्यपि पाठः 1).
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy