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________________ . ज्ञानार्णवः । . ७७ ध्यानतत्रे निषेध्यन्ते नैते मिथ्यादृशः परं । मुनयोऽपि जिनेशाज्ञाप्रत्यनीकाश्चलाशयाः ॥३०॥ __ अर्थ-सिद्धान्तमें ध्यान मात्र केवल मिथ्यादृष्टियोंकेही नहीं निषेधते हैं, किन्तु जो जिनेन्द्र भगवान्की आज्ञासे प्रतिकूल हैं तथा जिनका चित्त चलित है और जैनसाधु कहाते हैं। उनकेभी ध्यानका निषेध किया जाता है । क्योंकि उनके ध्यानकी सिद्धि नहिं होती ॥ ३०॥ योग्यता न यतित्वेऽपि येषां ध्यातुमिह क्षणम् । .. . . अन्विष्यलिङ्गमेतेषां सूत्रसिद्धं निगद्यते ॥३१॥ अर्थ-इस लोकमें जिनके मुनिअवस्थामें भी ध्यान करनेकी एक क्षणमात्रकी योग्यता नहीं है, उनकी पहिचान सूत्रसिद्ध (शास्त्रोक्त) कही जाती है ॥ ३१॥ यत्कर्मणि न तद्वाचि वाचि यत्तन्न चेतसि ।। ____ यतेयस्य स किं ध्यानपदवीमधिरोहति ॥ ३२ ॥ अर्थ-जिस यतिके जो कर्म (क्रिया) में है, सो वचनमें नहीं है। वचनमें और ही कुछ है । तथा जो कुछ वचनमें है सो चित्तम नहीं है । ऐसे मायाचारी यति क्या ध्यानपदुवीको पासकते हैं ? ॥ ३२ ॥ सङ्गेनापि महत्त्वं ये मन्यन्ते स्वस्य लाघवम् । परेषां संगवैकल्यात्ते खवुद्ध्यैव वञ्चिताः ॥ ३३ ॥ - अर्थजो मुनि होकर भी परिग्रह रखते हैं और उस परिग्रहसे अपना महत्त्व, मानते हैं तथा अन्य कि जिनके परिग्रह नहीं है उनकी लघुता समझते हैं, वे अपनी ही बुद्धिसे ठगे गये हैं; क्योंकि मुनिका महत्त्व तो निम्रन्थतासेही है ॥ ३३ ॥ . . . सत्संयमधुरां धृत्वा तुच्छशीलमंदोद्धतः। - - 'त्यक्ता यैः सा च्युतस्थैर्यातुमीशं क तन्मनः ॥ ३४॥ अर्थ-जिन निःसारखभावी मदोद्धत मुनियोंने समीचीन संयमकी धुरा धारण करके छोड़ दी और जिनका धैर्य छूट गया, उनका मन क्या ध्यान करनेमें समर्थ हो सक्ता है? कदापि नहीं । क्योंकि हीनप्रकृति मदोद्धत धैर्यरहितके ध्यानकी योग्यता नहीं है ॥ ३४ ॥ कीर्तिपूजाभिमानातलोकयात्रानरनितः।" । योधचक्षुर्विलसं यैस्तेषां ध्याने न योग्यता ॥ ३५ ॥ अर्थ-जो मुनि कीर्ति प्रतिष्ठा और अभिमानके अर्थमें आसक्त हैं, दुःखित हैं तथा ' लोकयात्रासे प्रसन्न होते हैं अर्थात् हमारे पास बहुतसे लोग आवे जावें और हमको माने
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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