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________________ ७६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् नीकी क्रिया नष्ट हुई देखो । दौड़ता २ तौ अन्धा नष्ट हो गया और देखता पंग ( पंगला) नष्ट हुआ । भावार्थ-बनमें आग लगी अंधेने इधर उधर दौड़नेकी क्रिया तो की किन्तु दृष्टिके विना आगमें गिरकर जल गया. और पंगु (लंगडा) किधरको आग है और किधरको रस्ता है, सब देखता तो है, परन्तु दौडा नहीं गया इस कारण अमिमें जलकर मर गया । इस कारण ज्ञान श्रद्धा और क्रिया इनसे ही प्रयोजनकी सिद्धि होती है" ! ॥ ३॥ कारकादिक्रमो लोके व्यवहारश्च जायते। न पक्षेऽन्विष्यमाणड्रेऽपि सर्वथैकान्तवादिनाम् ॥ २८॥ . . अर्थ-सर्वथा एकान्तवादियोंके पक्षका विचार करनेसे उनके यहां कर्त्ता कर्म करण आदि कारकोंका क्रम (परिपाटी और व्यवहार) दृष्टिगोचर नहिं होता है ॥ २८ ॥ . ___ उक्तं च ग्रन्थान्तरे पृथिवी। "इदं फलमियं क्रिया करणमेतदेषः क्रमो व्ययोऽयमनुषगज फलमिदं दशेयं मम । अयं सुहृदयं द्विषन्नियतदेशकालाविमा विति प्रतिवितर्कयन्मयतते बुधो नेतरः॥१॥" अर्थ-"जो विद्वान् हैं, वे ऐसा विचार करते हुए यत्न करते हैं; कि, यह तो क्रिया है, यह करण है और यह इसका फल है, यह इसका क्रम है, यह इसमें व्यय है, यह अनुषंगसे उपजा हुआ फल है और यह मेरी दशा है । यह मित्र है, यह द्वेष करनेवाला शत्रु है और यह कार्यसंबंधी देश तथा काल है । इस प्रकारका विचार वस्तुका अनेकान्त खरूप बताता है, परन्तु मूढजन इनका विचार नहीं करते हैं। ॥१॥ यस्य प्रज्ञा स्फुरत्युच्चैरनेकान्ते च्युतभ्रमा। . . . ध्यानसिद्धिर्विनिश्चेया तस्य साध्वी महात्मनः ॥ २९॥ .. - अर्थ-जिस पुरुषकी बुद्धि अनेकान्तमें अमरहित अतिशय स्फुरायमान है, उसी महात्माको उत्तम ध्यानकी सिद्धि निश्चयसे हो सकती है । सर्वथा एकान्तस्वरूप. वस्तु ही सिद्ध न हो, तव ध्यानकी सिद्धि कैसे हो ? ।। २९ ।। इस प्रकार मिथ्यादृष्टियोंके ध्यानकी योग्यताका निषेध किया । अब ऐसा. कहते हैं कि जो जैन मतके मुनि हैं और जिनाज्ञाके प्रतिकूल हैं, उनकोभी ध्यानकी सिद्धि । नहीं है, . . . . .
SR No.010853
Book TitleGyanarnava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Baklival
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1913
Total Pages471
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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