SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवचंद्रजी ने एक पूर्व नुं ज्ञान हतुं तेथी गटर पटरिया, मोहनविजय पन्यास ते लटकाला मुझ नै आगल अर्थ लिखवं छे ते अक्षर प्रमाणे अर्थ लिखीश किहां सरखो अर्थ दीसे ते माहरो दूषण न . काढस्यौ अक्षर विरुद्ध अर्थ माहरौ दूषण सही। अठारहवीं शताब्दी में मोहन-विजय अति लोकप्रिय कवि हुए हैं उनके 'चंदरास'का प्रचार बहुत जोरों से था । उस पर दोहों में जो सुंदर और सजीव समालोचना की है, वह समालोचनापद्धति का एक अच्छा उदाहरण है। इस ग्रंथ का विशेष परिचय आगे दिया जायगा । कविवर धनारसीदासजी के 'समयसार की भी कुछ आलोचना 'आत्मप्रबोध-छत्तीसी' में की है। जयपुर ओर बीकानेर के नरेशों पर श्रीमद् के असाधारण प्रभाव का उल्लेख आगे किया जा चूका है। इन के अतिरिक्त जैसलमेर-नरेश गनसिंह भी इन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे। जयपुर के महाराणा जवानसिंहजी से भी उनका अच्छा संबंध विदित होता है। कहा जाता है कि राणा जी की दुहागिन (कृपाहीन) राणी प्रतिदिन उनके पास आकर विनती किया करती थी की गुरुदेव | एसा कोई मंत्र दीजिए जिससे महाराणा मेरे वश में हो जाय।' उन्होंने उसे बहुत समझाया पर राणी किसी तरह न मानकर यंत्र देने के लिए विशेष हठ करने लगी। +तब श्रीमद् ने उसे एक कागज पर कुछ लिखकर दे दिया। राणीकी श्रद्धा ओर श्रीमद् की वचनसिद्धि से महाराणा की राणी पर पूर्ववत् कृपा हो गई। लोगों के भड़काने पर जव महाराणा ने यंत्र के संबंधमें उनसे पूछताछ की तो उन्होंने कहा, 'राजन् ! हमें इन सब कार्यों से क्या प्रयोजन ! अंतमें यंत्र खोलकर पढ़ने पर "राजा राणी सुं राजी, तो नारायण ने कई, राजा राणी रुसे, तो नारायण ने कई" लिखा मिला । इसे देखकर महाराणा आपकी निस्पृहता से बडे संतुष्ट हुए । महाराणा के आशीवाद में एक कविता भी उपलब्ध है। श्रीमद ने सत्रहवीं शताब्दी के शेषाद्ध के परम योगिराज आनंदघनजी की चौवीसी और बहुत्तरी पदों का चिंतन अपनी यौवनावस्था से प्रारंभ कर अंतिमावस्था पर्यंत किया था। अतः उनके जीवन पर आनंदघनजी के अनुभवों की गहरी छाप अंकित हो गई थी। आनंदघनजी के पद उन्हें अति प्रिय थे। उनके कई पदों के उद्धरण 'चौवीसी-बालावबोध, 'आध्यात्मगीता वालावबोध' ओर 'साधु सज्झाय बालावबोध' आदि में दिए हैं। श्रीमद् के बहुत्तरी [७२]आदि पदों पर योगिरान आनंदघनजी के पदों का प्रभाव बोल्कुल स्पष्ट है । इसीलिए कई आचार्यों ने उन्हें 'लघु आनंदघन' विशेषण से संबोधित किया है। . श्रीमद् के जीवन-चरित्र की बहुत बड़ी सामग्री हमने संग्रह की है। परंतु विस्तार-भय से बहुत-ही संक्षेप रूप से यह निबंध लिखा गया है। +. આ પ્રસંગ અન્ય સ્થળે અધ્યાત્મયોગી આનંદધન સાથે બન્યાને ઉલ્લેખ મળે છે. સંપા.
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy