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श्रीमद्, का एक चित्र इनार 'ऐतिहासिक जैनकाव्य संग्रह' में प्रकाशित है, और भी कितने ही चित्र उपलब्ध हैं । श्रीमद के बाह्य वेग - मुद्रा के संबंध में एक नाकाचीन पत्र महत्वपूर्ण है अतः उम्र पत्र का आवश्यक उद्रण नीचे दिया जाना है:
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तुं नया श्री बाबा जी साहिबां सोबन्दना १०८ बार रिखड़े की। आपके गुणग्राम याद करना हुँ | क्रिसी छाय(क) हुँ नहीं कृतकृत्य क्योका हुँगा | मरण तो आया, इहां नहीं हुं क्रमाया, क आपके दर्शन तो पाया बाकी जनन के गलाया ।
अब वह सुनिमुद्रा कान पर चश्मा था पर इस में तनानू डब्बी, द्रुमक दुमक चाल, से वचनामृत झरनादिक अनेक आनन्दकारी मात्रमय माधुरी सूरत ऋ देखूंगा | घाया अब कहां दर्शन पाऊंगा, जी है पाया हम अन्य में और तो नहीं में कमाया एक यहीं दर्शन अप्रूव पाया, इस ध्यान से जनम जनम का पाप माण, इतना तो खूब ही पुण्य कमाया आप ध्यान में मुझ निर्बुद्धी को रखोगे तो मैं धन्य धन्य बड़ाया, सिवाय इसके
कुछ है नहीं ।
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पत्र बाबाजी श्री १०८ ज्ञानयात्री म्हागन के चरणों में । श्रीमद् ने अपना किंचिन, परिचय अपनी बहुचरी के पद दिया है:साधा भाई निचे खेल अबेला । मोह निद्दाचे खेला। सा० ना हमरे कुछ जान न पांठा पर्व मेरा श्राचारा | मदिरा मां विवर्जिन जो कुल उन बर्लिन वस्तु बिना जो देवे, सो सब हम नावे | इन्दों का अकरापिन, धांवण जय सब पौधे || मा० परिक्रमा पाँच नहीं लाइक, सामाजिक ले वैसे
घर में पैसारा |१| सा०
साधु नहीं जैन के जिन्हें, जिन घर बिन नही पैसे [३] सा० श्रावक साधु नहीं की माधवी नहीं हमरे श्रावकणी ।
सुधी थदा जिन संबंधी सो गुरु सोई गुरुणी 121 सा० नहीं. इमरे कोई गच्छ विचारा, गच्छवासी नहीं निन्दे ।
गच्छवास गुल्लागर सागर, इतकं अहनिश वन्डे | ॥ सा० थापक उत्थापक नि बाड़ी, इनसे रीछ न भीले । न मिळणो न निन्दन वंदन, न हि श्रहिन धरी ने ॥ सा० न हमरे इन को बाद स्थय, चरचा में नहीं खी ।
किया बचि क्रिया न रागी, इम किरिया बटु के पान समाना सो मैं तो, किरियाकारक कुं देखें पंचम काले न उद्दीपन, पह
किरिया न घनीजे [3] सा० नारक जिन मात्री । चगनि कारण दात्री 11 मा० नम अति ही ही
गच्छ नायक नायक मेरे, हम है सत्र के दासा ।
पै आप संद्राप न किणसुं, नहीं कोई हरा उदासा ॥१०॥ सा०
अंग श्री दीवे ॥२१॥ सा०