SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ वापस बीकानेर आऐ वृद्धावस्था के कारण उन्होंने शेष नीवन वहीं विताया । बीकानेर में उनका प्रभाव बढ़ता गया । उनका जीवन भी परम सात्विक और आध्यात्मिक था । अनेक लोक-प्रपंचों में भाग लेते हुए भी वह उदासीन एवं निर्लेप रहते थे। इन दिनों का उन्होंने सर्वथा त्याग कर दिया था और एकांतवास उनको विशेष प्रिय था । वीकानेर के गोगा दरवाने के बाहर वाला स्मशान (टटों की शाला) ही उनकी तपोभूमि थी। कहते हैं कि पार्श्व यक्ष ( देवता ) उनके प्रत्यक्ष थे । वे समय-समय पर रात्रि में प्रकट होकर नाना विध ज्ञानगोष्ठी एवं भूत-भविष्य-संबंधी बातें किया करते थे। महाराजा सूरतसिंहजी की इन पर अत्यंत भक्ति थी। वे स्वयं इनके दर्शनार्थ अनेक बार पधारते और पत्र-व्यवहार बराबर होता रहता । महाराजा के लिए पच्चीस पत्र हमारे अन्वेषण में आये हैं। उन खास रुक्कों को पढ़ने से श्रीमद् के प्रति महाराजा का विनय, पूज्यभाव, अटलश्रद्धा, अविरल भक्ति, तलस्पर्शी हार्दिकभाव और अनेक ऐतिहासिक रहस्यों की जानकारी होती है। वीकानेर में रहकर उन्होंने बहुत से ग्रंथों की रचना की। यहां की प्रवृत्तियों के बहुत-से स्मारक अब भी विद्यमान हैं एवं आपसे संबंध रखनेवाले अनेक चमत्कारिक प्रसंग सुनने में आते हैं। सं. १८८९ में आश्विन और मार्गशीर्ष के बीच ९८ वर्षको दीर्घायु पूरी कर श्रीमद् ज्ञानसारजी स्वर्ग सिधाऐ । स्वयं ही अपनी आयु के संबंध में 'पार्श्वनाथ-स्तवन' में कहा है कि: साठी बुंध नाठी सव कहि है असियखिसी लोकोक्ति कही। मैं तो अठागुं अपर झो', मो में वुद्धि कही कहां ते .रही ॥ गौड़ीराय कहो बड़ी बेर भई । उनका अग्निसंस्कार वर्तमान शंखेश्वर पार्श्वनाथनी के मंदिर के पीछे हुआ था। उस स्थान पर आज भी एक समाधि मंदिर विद्यमान है, उसमें प्रवेश करते ही सामने के एक आले में उनकी चरणपादुकाएं प्रतिष्ठित हैं, जिन पर निम्नोक्त लेख उत्कीर्ण है: सं. १९०२ वर्ष मार्ग सुदी ६ पं० प्र+ज्ञानसारनी पादु.... श्री ज्ञानसारजो के हरसुख (हर्षनंदन), खूबचंद (क्षमानंदन), सदासुख (सुखसागर) नामक तीन शिष्य थे, जिनमें-प्रथम दोनों की दीक्षा सं. १८५६ से पूर्व और तृतीय की सं. १८६७ से पूर्व हो चुकी थी। इनमें से क्षमानंदन और सदासुख सं. १८९८ में तक विधमान थे । एकबार खुवचंदजी की मरणांत अवस्था में श्री गौड़ी पार्वप्रभु की कृपा से शांति हुई थी, जिसका उल्लेख श्रीमद् ने स्वयं अपने गौड़ी पार्श्वनाथ-स्तवन में किया है। इन तीनों शिष्यों के अतिरिक्त इनके शिष्य-प्रशियों में थे चतुर्मुन, मेरजी, कीरपाचंद, लकमन आदि का भी उल्लेख पाया जाता है । इन में से चतुर्भुजजी के शिष्य जोरजी थे जिनका देहांत सं. १९५५ में हुआ था । बस यहीं से उनकी संतति विच्छिन्न हुई। : .
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy