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माघ शुक्ला को द्वितीय चार श्री सम्मेद शिखर की यात्रा की । वहाँ से वापस पश्चिम की ओर बिहार करते हुए सं. १८५२ का चातुर्मास संभवतः दिल्ली में क्रिया । वहाँ से लोटन हुए. सं. १८५३ में जयपुर पथार । पूर्व देश के नाना अनुभवों का सजीव वर्णन आपने "घुख देदा वर्णन" में किया है। कहा जाता है कि जिस समय आप जयपुर पवार में इस समय के महाराजा का पट्ट - हम्नि बीमारी के कारण दिनोदिन सूख रहा था । रोग-प्रतिकार के अनेक उपचार किए गए, किन्तु कोई फल न मिला, तब किसी राज्याधिकाने राज्यगुरु खग्नर गच्छीय यति श्री श्री याद दिलाई और यह भी कहा गया कि वे राज्य के दिए हुए कई गाँवों की उपज लेते हैं। अनः उनसे हाथकी चिक्रिया के लिए अवश्य कहना चाहिए। महाराजा ने इस मनको पसंद कर पति को हाथी स्वस्थ करने को कहलाया । यति जी को पशुचिकित्मा का समुचित ज्ञान न होने से वे चिनिन हो उठे और इस कार्य के उपयुक्त किसी चतुर व्यक्ति की खोज में थी। उन्हें श्री ज्ञानसार जी का स्मरण हुआ और तुरन्त अपनी चित्रा का कारण बनाकर गजराज की चिकित्सा का भार उन पर सौंपा। श्री ज्ञानसारजी ने हाथी के रोग का निदान कर के अपने असाधारण बुद्धिमत्र हाथी के पेटी हुई वेलिको निकाल कर उसे पूर्ण स्वस्थ कर दिया |
इस घटना से महाराजा घनापसिंहजी चमन होकर श्रीमद के सदगुणों के प्रति श्रद्वा आ गए। श्रीमद् मां प्रायः राजसमा में जाया करते थे । राभ्यकीय विद्वान व गाठी का अपनी विना से महाराजाको प्रभावित कर दिया । खाम खाम प्रसंगों पर उनकी उपस्थिति और आशीर्वाद परमावश्यक समझे जाते थे । इन आशीर्वादाविनों में से सं. १८५३ माघ कृष्णा ८ श्री चित्र 'समुद्रवद्र प्रतापसिंह गुणवर्णन' पर स्वोपज्ञवनिका', पवन, 'कामोद्दीपन' ग्रंथमं दी सर्वेय उप हैं |
राजाह आदि कारण सं. १८५३ ९८६२ त के १० चानु जयपुर में किए। वहाँ पर 'संबोध-अष्टोरी आदि १ कृतियाँ र । उसके बाद कृष्णगढ़ गए। सं० १८६३ सं. १८६८ तक के ६ चातुर्मास कृष्णद किए। कृष्णगढ़ के राजा भी इनका बहुत सम्मान क थे । यहाँ श्रीमद, ग्रायः आध्यात्म-चिन्तन किया । इनका अध्यात्म अनुभव बहुत बढ़ा चढ़ा पर विशद आलोचनात्मक जिन स्तवनी पर वह सं.
था । वहाँ श्रीमद ने आनंदघन जी के गूढ़ रहस्यमय २२ तीर्थ के 'बालावबोध' बनाकर सं. १८६६ मा झुक्छ १२ श्री संपूर्ण क्रिया । १८२९ मे अचनक सुन्न मनन करने रहे थे। उन पर अपने परिपत्र अनुमत्र का उपयोग कर के उन्होंने मुमुक्षु जनता का परम हित-साधन किया। प्रस्तुत 'चाय' में इनका आध्यात्म अनुभव पद-पद पर छकता है । भाषा शौद्ध और जैनशैली की राजस्थानी है। कृष्णगढ़ में इनके उपदेश से चितामणि पार्श्वनाथजी के मंदिर का जीगोंद्वार और दंड-बजारोपण समागृह से हुआ |
सं० १८६० में वहां से विहार का शत्रुंजय तार्थ पारे । फाल्गुन कृष्णा ११ की यात्रा कर