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________________ उस पर जैसा चिंतन-मनन आपने किया ऐसा संभवतः और किसीने नहीं किया। आपके आनंदघन चौवीसी, वालाववोध और कुछ पदों पर प्राप्त विवेचन अत्यंत मार्मिक हैं। उपाध्याय यशोविजयजी के कुछ पद, पंक्तियाँ आपने इन विवेचनों में तथा अन्यत्र भी उद्धृत की हैं । अजितनाथ स्तवन के बालावबोध में उपाध्यायजीके "शुद्ध भाविकनी वलिहारी" और कुन्थुनाथ स्तवन के विवेचनादि में 'नवलग आवें नह मन ठाम' पद की पंक्तियाँ उद्धत की ही पर वहाँ आपने इस पद को आनन्दधनजी का माना है उपाध्यायजी के तत्त्वार्थ गीत पर तो आपने अच्छा विवेचन किया है, जिसे प्रकाशित किया जा रहा है। इससे पूर्व श्रीमद् ज्ञानसारजी का संक्षिप्त जीवन-परिचय दिया जा रहा है । श्रीमद् ज्ञानसारजी का संक्षिप्त जीवन-परिचय उन्नीसवीं शताब्दीमें श्रीमद् ज्ञानसारजी के नामसे एक श्वेताम्बर जैन यति प्रतिभा सम्पन्न कवि मस्त योगी एवम् राजमान्य महापुरुप हो गये हैं। उनका जन्म सं. १८०१ में बीकानेर राज्यांतर्गत् जांगल के समीपवर्ती जैणलैवास में हुआ था। उनके पिताका नाम उदयचंदजी सांड ! और माता का नाम जीवणदेवी था। उनका जन्म नाम 'नारायण' था । और इसी नाम से उनकी सर्वत्र प्रसिद्धी हुई। सं० १८१२ में मारवाड़ में भीषण दुष्काल पड़ा था। अस समय से यह खरतगच्छ के आचार्य श्री जिनलामरि जी की सेवा में रहने लगे थे और उन्हींके तत्त्वावधान में उनका विद्याध्ययन हुआ । सं. १८२१में उन्हें दीक्षा के योग्य नानकर पादरुग्राम में मिती माह शुक्ला ८ को उक्त श्री पूज्यनी ने यति-दीक्षा दी। दीक्षा के अनन्तर उनका नाम "ज्ञानसार" रक्खा और अपने शिष्य श्री रायचंद जो के शिष्य रूप से प्रसिद्ध किया । सं. १८३४ तक वे अपने गुरुजी के साथ श्री जिनलामसूरि जी की सेवा में ही रहे । इसी बीच में इनके गुरु श्री रायचंदनी का स्वर्गवास हो गया। सं. १८३४ के आश्विन कृष्णा १० को गूढ़ा में श्री पूज्यजी मी स्वर्ग सिधारे। इसके पश्चात् सं. १८३५में सूरिजी के ७ शिष्य अलग अलग हो गए। तब से ज्ञानसारजी अपने गुरु के बड़े गुरुभ्राता श्रीराजधर्मनी के साथ रहने लगे। प्रथम चातुर्मास उनके साथ ही पाली में किया । वहाँ से विहार कर राजधर्मज़ी नागौरं आए और ज्ञानसारजी किशनगढ़ चले गए। किशनगढ़ जा कर राजधर्मजी के पास नागौर वापस चले आए। उसके बाद सं. १८४५ तक आप अधिकांश उन्हीं के साथ रहे थे । सं. १८४५ -४७ के चातुर्मास जयपुर में किए । . सं० ९८४८में जब वे जयपुर में थे, तत्कालीन आचार्य श्री जिनचंदसूरिनी ने इन्हें वहाँ से विहार कर महाजन टोली जानेका आदेश दिया। उनके आदेशानुसार इन्होंने पूर्व देश की और बिहारकर सं. १८१९ का चातुर्मास महाजनटोली में किया। वहाँ से संघ सहित विहार कर श्री सम्मेतशिखर तीर्थ की यात्रा की । सं. १८५०-५१ के चातुर्मास अजीमगंज आदि में करके सं. १८५१
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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