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________________ ૨૫ और साथ ही साथ कुमार माता से ऐसे बचन कहते हैं कि जिन्हें सुनकर देवकी विवश हो चुप रह जाती हैं | 66 x । प्रभुसे सिद्धि पाने " नेमिधी कोई अधिको हुवै माताजी कई नहीं भाखियै, दीक्षा लेते ही कुमार की मोक्ष-साधन की उत्सुकता देखते ही बढ़ती है का शीघ्र मार्ग बतलाने का अनुरोध करते हैं । प्रभु ने कहा कि आत्म-तत्त्व में स्थिर हो जाओ, उदय-कर्म के भोगों को समभाव पूर्वक सहन करो। एक रात्रि को प्रतिमा धारण कर आत्मभावों में धीरज के साथ तल्लीन हो जाओ । " मात तुमे थाविका नेमिनी, तुमें पम न कहाय रे I मोक्ष-सुख हेतु संयम तणो, किम करो मांत ! अन्तरायरे ॥ ४ x X तो मानिये तास वचन्न रे । मोह रे संयम में मन्न रे ॥ राजकुमार श्मशान भूमि में जाकर ध्यान में लीन हो जाते हैं । " सोमिल ब्राह्मण' " जो 'राजकुमारका श्वसुर था -उधर से आ निकला । अपनी पुत्री से कुमार विवाह न कर मुनि बन गये थे इससे वह — कुमार को मुनि - वेश में ध्यानास्था देखकर - कोषसे जल उठा और मुनि के मस्तक पर मिट्टी का पाल बनाकर, उसके भीतर अग्नि प्रज्वलित कर दी । मस्तक जल रहा है-उस समय मुनि चिन्तन करते हैं - वह अपूर्व है । पाठक उसे श्रीमद् के इस पद द्वारा सुनें: -- 99 दहन - धर्म ते दाह जे अग्निथी रे, हुं तो परम मदाह अगाह रे । जे दाझे ते तो माहरो धन नथी रे, अक्षयचिन्मय तत्व प्रवाह रे ॥ " इति लेखकके उद्गार— देवचन्द्रकी पद पुष्पावलि, जो पहिरे भविजन " अगर " । महकत आत्म-सुगन्ध, निरमल हो शिवपुर-डगर ॥ भव्य "भ्रमर" अति लुब्ध भये, चख रस अतिनीरो । प्रीति-रीति अविलाय छांडि पुद्गल - रस फीको ॥ पान करत नहिं जात उड़ि तन-मन सुधि विसराय | मोहन प्रीति अनूप लख, निज-घर जात समाय ॥ તરૂણી સુખી સ્રી પરિવર્યાં રે, ચતુર સુણે સુરગીત; તેહુથી રાગે અતિ ઘણે રે, ધમ` સુણ્યાની રીત રે. પ્રાણી. [ समस्तिना उस भोसनी सन्त्राय.] [ श्री यशेो विनयक ]
SR No.010845
Book TitleYashovijay Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1957
Total Pages505
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size25 MB
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