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अवहार-क्रिया करते हुए मुनि की दृष्टि परमार्थिक हो । कहा है :- . .
" माव टि इन्यतः क्रिया, सेवी लहो शिवमित्त ।" अन्तईपयोग ठीक रहने के कारण ही सम्यक दृष्टि की क्रिया व भोग को निर्नग का कारण माना गया है। बाहर में आसक्ति नहीं होती । नवदृष्टि से क्रिया करते हुए भी बंब से वह मुनि अलग रहता है।
प्रथम समिति का कार्य गुमि रूप उत्सर्ग-मार्ग का अपवाद बतलाते हुए ज्ञानध्यान में स्थिर मुनि ठन, विचरन की चपटना क्यों करते हैं । यह प्रश्न उठाकर उत्तर में श्रीमद् बतलाते हैं कि मुनि निनोक्त कारणों में उठा है।
"मुनि उठे बसही थकी, जी, पामी कारण च्यार।
जिन बंदन (३) ग्रामांतरे जी (२) के आहार (३) निहार (8) ॥ जिनचंदन, ग्रामानुप्राम विहार, आहार निहार, मी क्यों किया नाता है:
" परम धरण संवर धनजी, सर्व जाण निन दीट ।
शुचि समता रुचि उपजजी तिणे मुनिन ए ईट ॥ राग बच स्थिर मावधी नी, मान विना परमाद । वीतरागता रहताली, चिचरे मुनि साल्हाद । ए शरीर भवमूल छ, तमु पोषक आहार । नात्र अयोगी नवि हुवेली, त्यां अनादि चार ॥ कवलाहारे निहार छजी, पह अंग विवहार । धन्य अतनु, परमात्माजी, जिहां निश्चलता सार। पर परिणति छन्न चपलताजी, क्रम मुकस्य रेपह ।
प्रेम विचारी कारणेजी, करे गोचरी तेह" अर्थात् महानचरित्र-संपन्न, संवर-धारक, सर्वच जिनंबर या उनकी मूर्ति को देख समता भाव की पवित्र तीच उत्पन्न होना है इसलिंग मुनि जिनदर्शन, बंदन करे । एक स्थान में अधिक समय पर रहने में स्थान व व्यक्तियों के प्रति मोह हो जाता है। इससे मानव्यान में बाया पड़ती है। प्रमाद बढ़ता है । अनः वानराग-आव की पुष्टि के लिए मुनि विचरता रहे । एक ही स्थान पर डंग नहीं नमाये । जहां तक अयोगी मात्र प्राप्त नहीं हो जाता | शरीर के लिए आहार की आवअकता है और आहार करने पर निहार यानी मलमूत्रादि का परिहार स्वामाविक है अतः आहार ओर निहार के लिए भी मुनि को स्थानांतरित होना पड़ता है । चलना होता है। पर चलने समय दृष्टि नीची रह-जीवों के रक्षण में सावधान रहे।
दसर्ग भाषा-समिति कायिक प्रवृत्ति का कारण बतलाते हुए आपने कहा है-वचन-गुमि रूप उत्सर्ग मार्ग का अपवाद भाषा-समिति है। सर्वथा मौन रहना संभव न हो तो हित-मित सत्य, निदोष